________________
रचना के अंत में कवि ने बाहय आडम्बरों की भर्त्सना की है। तीर्थाटन से, नाम जपने से, सिर मुंडाने से, गंगा स्नान से अथवा कथा सुनने से क्या होता है यदि मन वश में नहीं है।
इस प्रकार इस काव्य में मन को राजा के समान बताकर उसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्ध किया गया है। प्रस्तुत कृति आगरा नगर में कवि के द्वारा 34 दोहा चौपाई तथा अरिल्ल छंदों में बद्ध की गई। (9) स्वप्न बत्तीसी
प्रस्तुत रचना में भैया भगवतीदास जी ने दर्शन के विषय को रूपक की शैली में प्रस्तुत किया है। इसमें उन्होंने मोह ग्रस्त जीव को एक सोते हए व्यक्ति के समान बताया है और संसार को स्वप्नवत बताया है मानव स्वप्न में देखी हुई वस्तुओं को सत्य समझता है, उनमें लिप्त हो जाता है किन्तु स्वप्न के टूटते ही वह संसार भी लुप्त हो जाता है। वह इतनी गहन मोह-निद्रा में लीन है कि यह जानते हुए भी कि इस संसार में कुछ ही दिनों के लिए रहना है फिर भी मैं और तू-राग और द्वेष की परिणति में पड़कर अपने लिए संसार का सृजन कर लेता है।
निद्रावस्था में प्राणी वास्तविकता को नहीं देख पाता, जो कुछ भी वह उस समय देखता है, असत्य होता है किन्तु उस समय सत्य सा प्रतीत होता है। यही अवस्था संसार में मनुष्य की होती है
"आँख मूंद खोले कहा, जागत कोऊ नाहि।। सोवत सब संसार है, मोहगहलता माहि।।"
सारा संसार ही मोह रूपी निद्रा में लीन है, इसलिये मूर्ख प्राणी इस भव का अन्त नहीं पाता। जो प्राणी इस मोह रूपी निद्रा को त्यागकर सचेत हो जाता है वही अविनाशी पद ब्रह्म को धारण कर अनन्त सुख की प्राप्ति करता है और संसार रूपी सागर को पार कर लेता है।
मानव की मूर्खता तो देखो स्वप्न में देखी सम्पदा पर अभिमान करता है किन्तु जब यमराज अपनी प्रचंड सेना लेकर आता है तब क्षण भर में धराशायी कर देता है। यमराज भी जिससे डरता है तू उसके चरणों में मन लगा
और परमपद को प्राप्त कर। प्रस्तुत रचना 34 छंदों में निबद्ध है तथा इसकी रचना कवि के निवास-स्थान आगरा में हुई है।
(50)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org