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________________ लोभ) को दूर करके मन शिव सुख सम्पति को प्राप्त कर सकता है और इस भव सागर से पार पा सकता है। हृदय में इस बात की अनुभूति कि मैं शरीर नहीं हूँ, मैं इससे भिन्न शुद्ध आत्मा हूँ परमात्मापद की प्राप्ति का प्रथम चरण है। इस रूपक कथा काव्य में पाँचों इन्द्रियों तथा मन के वाद-विवाद और संवाद बहुत ही स्वाभाविक और रोचक हैं। प्रत्येक इन्द्रिय कुशल तर्कशीला है। कवि ने अत्यंत मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। प्रारम्भ में सभी इन्द्रियाँ एक हैं व समूह में अपनी महत्ता बताती हैं किन्तु मुनिराज के यह कहते ही कि तुम में जो सबसे प्रमुख है वही सब बात कहे, सब इन्द्रियाँ अपने आपको प्रधान सिद्ध करने के लिए एक दूसरे पर दोषारोपण करने लगीं। आक्रमण और प्रत्याक्रमण होने लगे, सबके दोष सामने आने लगे। प्रस्तुत काव्य 152 दोहा छंदों में बद्ध है। इसकी समाप्ति संवत् 1751 में आगरा में भाद्रपद सुदी द्वितीया को हुई थी। (8) मनबत्तीसी प्रस्तुत रचना में कवि ने मन की महत्ता बताई है। मानव के सब अंगों में मन ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है वही सब तत्वों का अनुसंधाता है, वही ब्रह्म का ध्याता है, वही शिवपद को प्राप्त करने वाला है। उसके शुद्ध होते ही वह संसार सागर से पार हो जाता है और उसके मोह माया में लीन होते ही जीव की गति बिगड़ जाती है। अत: कवि ने मन को राजा के रूप में अंकित किया है। मन रूपी राजा की ही समस्त कर्म, कषाय आदि उसकी सेनाएं हैं, इन्द्रियाँ उसकी उमराव (सरदार) हैं, वह रात दिन इधर-उधर दौड़कर अन्याय करता और करवाता है।1० जिसने मन रूपी योद्धा को जीत लिया वही संसार में वास्तविक विजयी है वही मुक्ति को प्राप्त करता है। मन के समान मुर्ख भी संसार में और कोई नहीं है जो सुख के सागर को छोड़कर विषय के वन में भटकता है। छहों खंड के राजाओं को भी जीत कर जिसने अपना दास बना लिया किन्तु एक अपने मन को न जीत सका वह नरक का दु:ख सहता है। सम्पूर्ण ऐश्वर्य के मध्य में रहकर भी मनुष्य विरागी रह सकता है और एक रंक भी संसार में लिप्त रह सकता है क्योंकि सारा महत्व भावनाओं का है, इनसे ही शुभ-अशुभ कर्मों का बंध होता है "भावना ही तै बंध है, भावन ही तैं मुक्ति। जो जाने गति भाव की, सो जानै यह युक्ति।" (49) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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