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जिहवा के लाभ कहाँ तक गिनाएं जाएं?
"केंते जिय मुक्ति गये जी, जी महि के परसाद।।
नाम कहाँ लों लीजिये जी, भैया बात अनादि।।" रसना की बात को बीच ही में काटकर स्पर्शेन्द्रिय बोली-इतना गर्व क्यों करती है? तेरे द्वारा कहे गये कर्कश वचन ही राजाओं में परस्पर युद्ध करा देते हैं, तेरे अवगुणों का तो पार ही नहीं है,.. "तो में तो अवगुण घने, कहत न आवै पार।।
तो प्रसाद ते सीस को, जात न लागै बार।।" आँख, नाक, कान सबका गर्व झूठा है। तुम सबको धारण करने वाले जीवों की संख्या तो शंख या महाशंख ही होगी लेकिन मैं अनन्त जीवों को धारण करती हूँ। तुम सब मेरे ही अधीन हो। बिना मेरे तप किये मुक्ति नहीं हो सकती मुनिराज मेरे द्वारा ही बाईस परीषह सहते हैं। मेरे बिना कोई क्रिया नहीं और क्रिया बिना कोई सुख नहीं अतः मैं ही सब में मुख्य हूँ।
तब ही मन बोल उठा--"अरी स्पर्शेन्द्रिय तू बहुत मूर्ख है जो झूठा गर्व करती है, एक अंगुल का शरीर, तब भी 96 वें रोगों से भरपूर रहता है। पाँच पापों (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) का पोषण तेरे ही द्वारा होता है, तेरा क्षय होते क्षण भी नहीं लगता। अतः मैं ही सबसे बड़ा और महान हूँ
"मन राजा मन चक्रि है, मन सबको सिरदार।। __ मन सो बड़ों न दूसरो, देख्यो इहि संसार।।"
पाँचों इन्द्रियों तथा मन का वाद-विवाद सुनकर मुनिराज जी बोले-मन! क्यों गर्व करता है? सर्वाधिक पापी तो तू ही है। इन्द्रियाँ तो स्थिर भी रहती हैं लेकिन तू तो अत्यधिक चंचल है, रात दिन इधर-उधर दौड़ता रहता है क्षण भर को भी स्थिर नहीं होता, कर्मबंधन का कारण तो तू ही है। यदि तू परमात्मा का ध्यान करे तो संसार से पार हो जाये और परमात्मा वही है जिसमें रागद्वेष की भावना नहीं है।
. इन्द्रियों की मैत्री करके जीव जन्म मरण आदि के अनेक दु:ख सहता हुआ भव में भ्रमण करता रहता है, कभी भी छूट नहीं पाता। इन्द्रियों के वश होकर ही जीव संकट में पड़ जाता है। भौंरा नाक के कारण कमल में बन्द होकर तथा कांटों में बिंधकर मृग तथा अहि कानों के कारण ही बंधन में पड़कर, पतंग चक्षु के कारण अग्निशिखा में जलकर इसी बात को सिद्ध करते हैं। अतः इन्द्रियों को वश में करके तथा चारों कषाय (क्रोध, मन, माया,
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