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नाक और पत अर्थात् प्रतिष्ठा यहाँ समानार्थी हो गये हैं। नाक रखने के हेतु ही बाहुबलीजी ने राज्य त्यागकर दीक्षा धारण की थी, राम ने रावण से युद्ध किया था, सीता ने अग्नि में प्रवेश किया था। संसार के गंध सम्बन्धी सभी प्रकार के आनन्द मेरे द्वारा प्राप्त होते हैं।
नाक की इस आत्म प्रशंसा को कान सहन न कर सके, बोले- "तू क्यों इतना अभिमान करती है ? जो नौकर चाकर आगे-आगे चलते हैं वे राजा के समान नहीं हो जाते । तू इतनी घृणित है कि तुझमें से रात-दिन श्लेष्मा बहती है। तेरी छींक किसी भी उत्तम काज में बाधक बन जाती है। वृषभ और नारी आदि जीवों को देख! तेरा छेदन किया जाता है तब भी तुझे लाज नहीं आती और मुझे देख, मैं जिनेन्द्र भगवान की वाणी को सदा चित्त लगाकर सुनता हूँ जिससे जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। छहों द्रव्यों के गुण सुन विशद ज्ञान को धारण मैं ही करता हूँ। नेमिनाथ जी ने पशुओं का करुण क्रन्दन सुनकर ही विवाह के स्थान पर वैराग्य धारण कर लिया था, और उनकी भविष्यवाणी सुनकर ही द्वारिका भस्म होने से पूर्व अनेक जीव सुरक्षित बच सके थे। "
कान की इस आत्मश्लाघा को सुनकर चक्षु इन्द्रिय बोली " मल का समूह भीतर धारण करके भी तुझे लाज नहीं आती और इतना अहंकार करता है। तेरे बराबर तो दुष्ट कोई है ही नहीं, तू ही बुराई भलाई सुनकर पारस्परिक प्रेम को तोड़ डालता है और राग द्वेष को उत्पन्न करता है। तेरी ही कृपा से बहुधा जीव नरक में जाता है । इसीलिये तो नर नारी के कानों को बेधा जाता है । कानों की सुनी बात तो प्रायः झूठी है किन्तु मेरे द्वारा देखी बात में कोई संशय ही नहीं रह जाता। मेरे माध्यम से ही तीर्थंकरों के मनोहर रूप को देखा जाता है। आँखों से देख कर ही सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया जाता है। " चक्षु इन्द्रिय की आत्म प्रशंसा को रसना इन्द्रिय और न सुन सकी, बोल उठी- 'अरी तुझे काजल से रंजित होकर भी लाज नहीं आती ? इतना अभिमान करती है ? तेरी ही कृपा से सुन्दर रमणियां अपने सलोने रूप से साधु मुनियों को भ्रष्ट करती हैं। तेरे दोष कहाँ तक गिनाए जायें ? और मैं-मैं ही षट्स व्यंजनों का स्वाद लेती हूँ और सारे परिवार ( शरीर के) का पालनन-पोषण मैं ही करती हूँ। मेरे बिना न आँख देख सकती है न कान सुन सकते हैं। एक जिह्वा से ही संसार को अपना मित्र बनाया जा सकता है। जिहवा से ही सातों स्वरों का गायन तथा ग्रंथों का पठन-पाठन सम्भव है।
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