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उपादान निमित्त के इस तर्क का भी खंडन कर देता है, कहता है
"सूर सो मणि अग्नि जो, करै अनेक प्रकाश।
नैन शक्ति बिन न लखै, अंधकार सम भास।।" अर्थात् यदि नेत्रों में अपनी निज की शक्ति नहीं है तो कितना ही प्रकाश क्यों न हो, नेत्र देख नहीं सकते। इस प्रकार उपादान निमित्त के समस्त तर्कों का खंडन कर शास्त्रार्थ में विजयी सिद्ध हो जाता है, निमित्त पराजित हो जाता है।
। यद्यपि उपादान और निमित्त दर्शन के क्षेत्र की विचारधारा है किन्तु कवि ने इसको दो पात्रों के परस्पर वाद-विवाद के रूप में प्रस्तुत कर रचना में पर्याप्त रोचकता का समावेश कर दिया है। 47 दोहा छंदों में निबद्ध इस कृति की रचना कवि ने आगरा नगर में संवत् 1750 के फाल्गुन के प्रथम पक्ष में की। (7) पंचेन्द्रिय-संवाद
पंचेन्द्रिय संवाद भी भैया भगवतीदास का एक अत्यंत सुन्दर आध्यात्मिक रूपक काव्य है। इसमें पाँचों इन्द्रियों तथा मन का मानवीकरण किया गया है। आँख, नाक, कान जिह्वा तथा स्पर्शेन्द्रियां परस्पर संलाप द्वारा अपनी महत्ता का वर्णन करती हैं। प्रत्येक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रियों के महत्व का निराकरण और तिरस्कार तथा अपनी गुरुता का प्रतिपादन करती हैं। इसका कथानक इस प्रकार आरम्भ होता है-एक दिन एक सुरम्य उद्यान में एक मुनिराज भव्य जीवों को धर्म का उपदेश दे रहे थे, व्याख्यान में उन्होंने कहा कि पाँचों इन्द्रियां बहुत दुष्ट हैं, इनको जितना ही पुष्ट किया जाए उतना ही दुख देती हैं। इस पर एक विद्याधर इन्द्रियों का पक्ष लेकर कहने लगा कि इन्द्रियां दुष्ट नहीं हैं, इनकी बात इन्हीं के मुख से सुन लीजिये।
पाँचों इन्द्रियां बोलीं "हमसे ही तो जप तप और संयम नियम का पालन होता है और आचरण का निर्वाह भी हमारे द्वारा ही होता है, आप हमें दोष क्यों देते हैं ? मुनिराज जी ने कहा 'तुम में से जो सरदार' अर्थात् प्रधान हो वह अपनी महत्ता बताये।"
सर्वप्रथम नाक ने बोलना आरम्भ किया-मैं ही सबसे बड़ी हूँ, नाक मनुष्य के सम्मान और प्रतिष्ठा की प्रतीक है, उस ही भाव को लेकर वह कहती है कि
"नाक कहै जगहूँ बड़ों, बात सुनो सब कोई रे।। नाक रहे पत लोक में, नाक गये पत खोई रे।।"
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