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विषय वासनाओं के मध्य उलझे हुए जीव की दशा को व्यक्त किया है। इस काव्य का समापन सम्वत 1740 में मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की द्वादशी भौमवार को हुआ। प्रस्तुत रचना 60 दोहा चौपाई और सोरठा छंदों में बद्ध है। (5) नाटक पचीसी
इस प्रस्तुत रचना में कवि ने जीव का एक नट (अभिनयकर्ता) के साथ रूपक बांधा है। तीन लोक नाट्य भवन है, इस नाट्यशाला का मोह निदेशक है और जीव अभिनेता है। यह जीव सारे संसार में देव नरक तिर्यंच तथा मनुष्य गति में विभिन्न रूप धारण करता हुआ भ्रमण कर रहा है। कभी एकेन्द्रिय स्थावर जीव कभी वनस्पति काय आदि का रूप धारण करता है तो कभी किसी पशु पक्षी का रूप, कभी मनुष्य रूप में स्वांग करता है तो कभी देव रूप में। इस नाटक में सब कुछ अभिनय ही अभिनय है, सारवस्तु कुछ नहीं है। प्रस्तुत रचना पच्चीस दोहा छंदों में निबद्ध है। (6) उपादान निमित्त संवाद
प्रस्तुत रचना में कवि ने उपादान और निमित्त को दो पात्रों के रूप में प्रस्तुत किया है, दोनों पात्र एक दूसरे के तर्कों का खंडन करके अपनी-अपनी महत्ता को स्थापित करना चाहते हैं। उपादान से तात्पर्य आत्मा की शक्ति से है और निमित्त बाह्य संयोगों को कहते हैं। जिस प्रकार दही के जमने में दूध उपादान है और छाछ निमित्त। निमित्त कहता है कि बिना मेरे आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता। अर्थात् जीव को यदि साधु आदि गुरु अथवा शास्त्रों का सम्पर्क प्राप्त न हो तो उसका उद्धार नहीं हो सकता
"देव जिनेश्वर गुरु यती, अरु जिन आगम सार।
इहि निमित्त तें जीव सब, पावत हैं भव पार।।" उपादान निमित्त के इस तर्क का खंडन कर देता है। वह कहता है कि यह निमित्त तो जीव को मिलते ही रहते हैं तब भी जीव संसार में भटकता रहता है। प्रत्येक व्यक्ति मोक्ष क्यों नहीं चला जाता। निमित्त अपनी महत्ता सिद्ध करने के लिये अनेक तर्क प्रस्तुत करता है। वह कहता है प्रकाश के बिना नेत्र देख नहीं पाते अतः प्रकाश देने वाले सूर्य, सोम मणि का महत्व स्वतः सिद्ध
"सर सोम मणि अग्नि के, निमित्त लखै ये नैन। अंधकार में कित गयो, उपादान दृग दैन।।"
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