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________________ करने लगा। द्वादश नगर (क्षीण कषाय, बारहवां गुणस्थान) में पहुँचकर राजा चेतन ने राजा मोह का पटक-पटक कर अन्त कर दिया। तत्पश्चात् वह सयोग केवली (तेरहवां गुणस्थान) को पार करते हुए अयोग केवली नगर (चौदहवें गुणस्थान) में पहुँचकर अनन्तकाल के लिये निष्कंटक और अखंड राज्य करने लगा। इस प्रकार इस रचना में अपने विकारों पर विजय प्राप्त करते हुए जीव के मोक्ष तक पहुँचने में सफल प्रयास को अत्यंत रोचक कथा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। कवि ने दर्शन के गूढ़ तथा नीरस सिद्धान्तों को जन-सामान्य के लिये भी कथा के सरस आवरण में लपेटकर ग्राह्य बना दिया है। प्रस्तुत रचना 296 दोहा, चौपाई, सोरठा, पद्धरि, करिखा, मरहठा, आदि छंदों में बद्ध है तथा इस कृति की रचना कवि के द्वारा ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी गुरुवार सम्वत् 1736 को की गई। (3) गुरु शिष्य चतुर्दशी (प्रश्नोत्तर) । इस लघु रचना में कवि ने अन्योक्ति के माध्यम से आध्यात्मिक तथ्यों को रोचक शैली में प्रस्तुत किया है। एक शिष्य गुरु से कुछ प्रश्न करता है कि मैंने एक बहुत ही आश्चर्य की बात सुनी है कि एक नगर में एक राजा रहता है, जो शत्रुओं के बीच छिपा हुआ है, वहाँ सब नीच लोग राज्य करते हैं और वह उन्हीं के अधीन है। बंदी के समान है। उसने अपनी परिणीता पत्नी को त्याग दिया है और दासी में अनुरक्त है, कृपा करके बताइये ये सब कौन हैं ? तब गुरु उसका समाधान करते हैं, काया नगरी में राजा जीव है किन्तु वहाँ अष्टकर्मों का ही जोर है। राजा ने अपनी कुलनारी सुमति को तो त्याग दिया है और अज्ञान दासी में ही अनुरक्त है। कितने खेद की बात है कि उसने पराधीन होकर अपने स्वत्व को ही खो दिया है "आप पराये वश परे, आपा डारयो खोय। आप आपु न जानहीं, कहो आपु क्यों होय।।" यह रचना चौदह दोहा छंदों में निबद्ध है। (4) मधुबिन्दुक चौपाई मधुबिन्दुक चौपाई भैया भगवतीदास जी का एक अन्य श्रेष्ठ आध्यात्मिक रूपक कथा काव्य है। जीव अनादिकाल से इस विश्व में भ्रमण कर रहा है, वह विषय सुख को ही सच्चा सुख माने हुए है। इन्द्रियों के प्रलोभनों की (43) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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