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का अनोखापन देखों! इसमें बोते कुछ और है और उपजता कुछ और है। पंचामृत रस से इसका भरण पोषण करते हैं किन्तु रुधिर और अस्थियाँ निर्मित होती हैं, फिर भी कुछ भरोसा नहीं, कब नष्ट हो जाये तब भी तुम उसे सच्चा माने बैठे हो। सुमति रानी उसे सचेत करते हुए कहती हैं कि चेतन, अनादि काल से तुम सोते चले आ रहे हो, ऐसी नींद कौन सोता है?
"चेतन नींद बड़ी तुम लीनी, ऐसी नींद लेय नहीं कोय।"
बड़ी कठिनाई से यह नर जन्म तुमने पाया है, यह तो चिंतामणि तुम्हारे हाथ आ गई है, अब तो आँखें खोलो जैसे तिल में तेल, फूल में सुगन्धि बसी होती है वैसे ही तुम्हारे भीतर ईश्वरतत्व (सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता) विद्यमान हैं।
कवि रानी सुमति के माध्यम से जीव को भाँति-भाँति से प्रबोधता है। चेतना से युक्त होकर भी तुम अचेतन बने हुए हो सचेत क्यों नहीं होते। और जब यह जीव सचेत हो जाता है, तब सब कुछ परिवर्तित हो जाता है, ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, मोह अज्ञान का अंधकार मिट जाता है, भव भव के बंधन छूट जाते हैं, वह सम्यग्दृष्टि जीव पंकज के स्वभाव को धारण कर लेता है अर्थात् पंक में रहते हुए भी कमल उससे असम्पृक्त रहता है, उसी प्रकार वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव स्व और पुद्गल के अन्तर को जान लेता है और पुद्गल (शरीर) की प्रीति छोड़ रागद्वेष के बंधन तोड़ ऊर्ध्वगामी होता है। ज्ञानदशा के प्राप्त होते ही पूर्वकृत कर्मबंधन ऐसे ही छूट जाते हैं जैसे तार्क्ष्य (गरुड़) को देखते ही सर्प अंतर्धान हो जाता है इसीलिये कवि बारंबार जीव को सचेत करना चाहता है। एक सौ आठ कवित्त, सवैया, कुंडलिया, दोहा, सोरठा आदि छंदों में बद्ध इस रचना में कवि ने जैन दर्शन के गूढ सिद्धान्तों को सरस एवं रोचक शैली में प्रस्तुत किया है। (2) चेतन कर्मचरित्र
प्रस्तुत रचना भैया भगवतीदास जी का सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक रूपक काव्य है। कथा इस प्रकार है- चेतन रूपी राजा अनादि काल से चतुर्गति (मनुष्य, देव, तिर्यंच और नरक) रूपी शैया पर सो रहा है शुभकर्म का उदय होने पर उसकी निद्रा खुलती है तो वह देखता है कि अनादि काल से जड़ पदार्थ कर्म मेरे साथ संयुक्त हैं, उसके मन में उन्हें जानने की जिज्ञासा होती है, उसकी दो रानियां हैं सुबुद्धि और कुबुद्धि। रानी सुबुद्धि कहती है कि तुम्हारे संग बलवान योद्धा कर्मशत्रु लगे हुए हैं। राजा इनसे मुक्ति का उपाय पूछता
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