SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकार के कथा-रूपकों से भरा हुआ है। रूपकों की गौरवशाली परम्परा को देखकर 'बेवर' आदि विद्वानों ने रामायण के प्रथम श्लोक को उसका सार मानते हुए उसे भी श्रेष्ठ रूपक माना है "मा निषाद प्रतिष्ठाम् त्वमगमः शाश्वती समाः। यत्क्रौंच मिथुनादे कमवधी काममोहितम्।।" यहाँ बधिक रावण और क्रौंच युगल राम और सीता को माना गया है। संस्कृत में पंचतंत्र की कथाएं तथा पाली में बौद्ध जातक कथाएं भी रूपक साहित्य के ही अन्तर्गत आती हैं। __ जैन साहित्य में संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं में रूपक साहित्य की समृद्ध परम्परा रही है। संस्कृत में पं0 परमानन्द शास्त्री के अनुसार सर्वाधिक प्राचीन रूपक काव्य सं0 962 में सिद्धार्थी द्वारा रचित 'उपमिति भव प्रपंच कथा' है तत्पश्चात् आचार्य अमित गति के द्वारा धर्मपरीक्षा, नागदेव के द्वारा मदनपराजय, प्रबोधचन्द्रोदय, मोहपराजय, ज्ञानसूर्योदय नाटक आदि रूपक ग्रंथ लिखे गये । प्राकृत में कविवर जयराम द्वारा धम्म परिवजा तथा अपभ्रंश में लाभप्रभाचार्य द्वारा कुमारपाल-प्रतिबोध (रचनाकाल सं0 1241) कवि हरदेव द्वारा मयण पराजय (मदनपराजय) कवि पाहल द्वारा मनकरहा तथा कवि वूचिराज द्वरा मदनजुद्ध हैं। हिन्दी साहित्य में मध्ययुग में निर्गुणसन्तों ने रहस्यात्मक उक्तियों के लिए रूपक-परम्परा को ही अपनाया। पद्मावत में लौकिक प्रेम द्वारा पारलौकिक प्रेम का संकेत दिया गया है। कबीर का काव्य भी रहस्यमय रूपकों से भरा हुआ है। हिन्दी जैन कवियों ने भी सुन्दर आध्यात्मिक रूपक काव्यों की रचना की है जिनमें कविवर बनारसीदास कृत समयसार नाटक, तेरह काठिया, अध्यात्म हिंडोलना है तथा भैया भगवतीदास कृत चेतनकर्म चरित्र, मधुबिंदुक चौपाई, पंचेन्द्रिय-संवाद आदि अत्याधिक प्रसिद्ध हैं जिनका परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। (1) शतअष्टोत्तरी प्रस्तुत रचना में भैया भगवतीदास ने एक संक्षिप्त कथानक के माध्यम से आत्मतत्व का सम्पूर्ण ज्ञान अन्तनिर्हित कर दिया है। भक्ति भावना से ओत-प्रोत होकर कवि ने सर्वप्रथम पंच परमेष्ठी-अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु के प्रतीक चिन्ह ओंकार की वंदना की है, तत्पश्चात् उन षट (37) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy