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प्रत्यक्षीकरण अथवा साक्षात्कार होता है। उन्होंने इस प्रकार के काव्य का प्रयोजन मनुष्यों को आत्मसाधना की ओर अग्रसर करना ही माना है क्योंकि रागी और विषय वासनाओं में रत आत्माओं पर वैसे कोई प्रभाव अंकित नहीं होता। श्री नेमिचन्द्र जैन शास्त्री ने भी आध्यात्मिक रूपक काव्यों का उद्देश्य ज्ञान और क्रिया द्वारा दुःख की निवृत्ति दिखाकर लोककल्याण की प्रतिष्ठा करना माना है। वस्तुतः रूपक काव्य में गूढ सूक्ष्म और नीरस सिद्धान्तों को कथात्मक शैली में प्रस्तुत करके रोचक और सरस बना दिया जाता है, जैसे-कुनैन की कटुतिक्त गोली शर्करा के आवरण में मधुर बन जाती है।
हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार रूपक कथा के चार भेद दृष्टिगत होते
(1) इसमें पात्र भावनाओं, विचारों या सूक्ष्म अशरीरी तत्वों के मानवीकृत रूप होते हैं जैसे संस्कृत में प्रबोध चन्द्रोदय, मोहराज पराजय। प्रसाद का 'कामना' नाटक भी इसी प्रकार का है। ऐसी रूपक कथा में चरित्र-चित्रण, घटनाओं की योजना आदि में यथार्थता या स्वाभाविकता नहीं होती।
(2) इसमें पात्र मानवीकृत तो नहीं होते पर प्रतीकात्मक अवश्य होते हैं। प्रकृति भावना या सूक्ष्म तत्व का नाम ही पात्र का नाम होता है। ऐसी रूपक कथा में पात्र ही नहीं अधिकांश घटनाएं और वर्ण्य वस्तुएं भी प्रतीकात्मक या सांकेतिक होती हैं।
(3) इसमें पात्र मानवेतर प्राणी या जड़ पदार्थ होते हैं। वे पात्र मानव भाषा बोलते, समझते और बातचीत करते दिखाई पड़ते हैं। पंचतंत्र और ईसप की पशु कथाएं (Beast Fables) ऐसी ही हैं। प्रसाद के 'एक चूंट' तथा पंत के 'ज्योत्सना' नाटक में ऐसी ही रूपक कथाएं हैं।
(4) जिसमें पात्र और घटनाएं सभी यथार्थ और स्वाभाविक होती हैं परन्तु उसका समग्र प्रभाव गूढार्थ व्यंजक और सांकेतिक होता है। पूरी कथा मानव जीवन से सम्बन्धित किसी सूक्ष्म सत्य या महत्वपूर्ण घटना की ओर संकेत करती प्रतीत होती है। यह संकेत पूरी कथा के समन्वित प्रभाव में अधिक प्रतिफलित होता है, कथा के अवयवों में उतना नहीं। जायसी के 'पद्मावत' तथा प्रसाद के 'कामायनी' इसी कोटि के काव्य हैं।
भारतीय साहित्य में रूपक परम्परा अत्यंत प्राचीन है। अरूप को रूप देकर विचारों और भावों को अभिव्यक्त करने की परम्परा साहित्य में आदिकाल से चली आ रही है। वैदिक और पौराणिक काल का साहित्य इसी
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