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में लीन होकर काव्य साधना कर रहे थे। स्वयं औरंगजेब के राज्यकाल (सम्वत् 1715-1764 वि0) में ही अनेक जैन कवि हुए। जिनहर्ष (रचनाकाल सं0 1713-1738 वि0), अचलकीर्ति (सं0 1715 वि०), जोधराज गोदीका (सं0 1724 वि0), जगतराम (सं0 1722-1730 वि0), जिनरंगसूरि (सं0 1731 वि0) भैया भगवतीदास (रचनाकाल सं0 17311755 वि0), शिरोमणिदास (रचनाकाल सं0 1732 वि0), द्यानतराय (जन्म सं0 1733, साहित्यिक काल सं0 1780 वि0) जिनकी पूजाएं आरतियां और पद अत्यधिक लोकप्रिय हैं, विद्यासागर (रचनाकाल सं0 1734-1755 वि0), बुलाकीदास . (रचनाकाल सं0 1737-1754 वि०), खेतल (रचनाकाल सं० 1743-1755 वि0), विनोदीलाल (रचनाकाल सं0 1750 वि0) औरंगजेब के राज्यकाल में ही हुए हैं। विनोदीलाल का उल्लेख तो मिश्रबन्धु विनोद में भी किया गया है। इस जैन कवि ने भी औरंगजेब की प्रशंसा की है। जैन कवियों के द्वारा औरंगजेब की प्रशंसा भी एक विचारणीय प्रश्न है तथा यह भी एक आश्चर्य की बात है कि औरंगजेब के इतने अन्याय और दमन को सहकर भी किसी कवि की वाणी ने रोष आक्रोश अथवा नैराश्य को स्वर नहीं दिया। क्या जनमानस इन भावनाओं से शून्य था? अथवा कोई भी कवि अपने युग का सच्चा प्रतिनिधित्व नहीं कर सका? मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि कभी-कभी घोर नैराश्य की स्थिति में मानव हृदय पलायनवादी हो जाता है। अत: अपने युग की विभीषिकाओं की ओर से मुख फेरकर कुछ तो युग के प्रवाह के साथ-साथ शृंगार की सरिता में मग्न होने लगे और कुछ तटस्थ होकर आध्यात्मिक रस में लीन हो गये।
इस प्रकार हम देखते हैं कि तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा साहित्यिक, परिस्थितियों का प्रभाव भैया भगवतीदास के साहित्य का स्पर्श नहीं कर पाया। यदि उन पर कोई प्रभाव है तो केवल इतना कि उन्होंने अभिव्यक्ति की कुछ चमत्कारपूर्ण शैलियों को अपनाया है जैसे अन्तर्लापिका, बहिर्लापिका, चित्रकाव्य आदि। इसके अतिरिक्त यत्र-तत्र उन्होंने अपने समय की परिस्थिति विशेष का संकेत मात्र दे दिया है। समय के प्रवाह में न बहकर लीक से हटकर चलना, विरल महान पुरुषों की ही सामर्थ्य होती है। जिस समय जनमानस विलास शृंगार और अश्लीलता के सागर में आकंठ मग्न हो रहा था, कवियों की वाणी नारी के नख शिख वर्णन में ही उलझकर रह गई थी, देव जैसे कवि 'जोगह तैं कठिन संजोग परनारी को 34 का राग अलाप रहे
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