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मातृभूमि अरब ही है। अरब और फारस की संस्कृति ही उनकी संस्कृति है । "साहित्यिक लिखा-पढ़ी के लिए भारतीय भाषाओं को काम में लाना 18वीं शताब्दी के बाद तक भारतीय मुसलमान अपने लिए अपमानजनक समझते थे 132
विलासिता का तत्व मुग़ल सम्राटों के अनुकरण पर उनके अमीरों और सामन्तों से होता हुआ जन सामान्य में व्याप्त हो गया था। अतः साहित्य में भी उसकी अभिव्यक्ति हुई । कवि अपने आश्रयदाताओं के ऐश्वर्य तथा विलासपूर्ण क्रीड़ाओं का अतिरंजित वर्णन करना ही कवि कर्म समझने लगे । कविता तथा कला विलासपरक जीवन का उद्दीपन मात्र बनकर रह गई । विलासी शासकों की परिषदों में अभिजात वर्ग के सामन्तों का अभाव हो गया था। दर्जी, नाई, महावत, भिश्ती जैसे निम्न बौद्धिक स्तर के व्यक्ति उनके विश्वासपात्र बन गए थे, अतः इन्हीं की रुचि के अनुसार काव्य तथा अन्य कलाओं का विकास हुआ।
साहित्य और धर्म का गठबंधन प्राचीनकाल से होता आया है। इस समय वैष्णव धर्म अनेक विकृतियों से ओतप्रोत हो चुका था, विलासिता का तत्व धर्म के क्षेत्र में भी प्रवेश पा चुका था। मंदिरों और मठों में देवदासियों के मादक गायन एवं नृत्य से भगवान की मूर्तियों के नाम पर मठाधीशों का मनोरंजन होता था। अतः साहित्य में भी कृष्ण और राधा, सामान्य नायक और नायिका बनकर रह गए थे। वस्तुतः तत्कालीन कवियों ने अपनी वासनात्मक अभिव्यक्ति को राधा और कृष्ण के नाम से संयुक्त कर उस पर भक्ति भावना अथवा धार्मिकता का आवरण डाल देना चाहा है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस युग को रीतिकाल की संज्ञा दी है 'क्योंकि इस युग के कवियों ने संस्कृत के काव्य-प्रकाश, चंद्रालोक, साहित्यदर्पण जैसे लक्षण ग्रंथों की रीति पर ही रस, अलंकार, नायिका भेद आदि काव्यांगों का निरूपण किया है। उन्होंने इस युग के कवियों को दो वर्गों में विभाजित किया - रीतिबद्ध कवि और रीतिमुक्त कवि । किन्तु, कालान्तर में इस बात का अनुभव किया गया कि रीतिकाल नाम इस युग की प्रमुख प्रवृति का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम नहीं है। अतः डॉ० रामकुमार वर्मा ने इस में काव्य के कलापक्ष की पुष्टता की ओर संकेत करते हुए इसे 'कला - काल' की संज्ञा दी और पं0 विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसके वर्ण्य विषय में श्रृंगार रस अतिरेक को दृष्टि में रखते हुए श्रृंगार- काल के नाम से अभिहित किया ।
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