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(शियाघातिनी) रखा था। वह अपने पत्रों में शियाओं का बिना गालियों के उल्लेख नहीं करता था। गुले बयावानी (शवभोजीराक्षस) तथा कातिल मजाहिबाँ (मिथ्याविश्वासी) उसके प्रिय प्रयोग थे। बीजापुर और गोलकुंडा के शासक शिया थे इसीलिए उन पर आक्रमण किया गया था। औरंगजेब ने प्रसिद्ध रहस्यवादी संत सरमद का भी वध करवाया था क्योंकि वह दारा का श्रद्धेय रहा था और सर्वेश्वर वादी था। कट्टर पंथियों की दृष्टि में अनीश्वर वादी और सर्वेश्वर वादी दोनों समरूप से निन्दनीय हैं।
हिन्दुओं की आन्तरिक दशा भी शोचनीय थी। छोटी-छोटी बातों को लेकर उनके आंतरिक भेद विभेदों के कारण हिन्दू समाज उपजातियों में विभाजित होकर अशक्त हो गया था। शैव और वैष्णव धर्म की अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं का प्रचार था। इनमें कृष्णभक्ति शाखा का ही सर्वाधिक प्रचलन था क्योंकि वही युग की प्रवृति के अनुकूल थी। अनेक गद्दियों और मठों की स्थापना हो चुकी थी। उनके स्वामी भी वैभव विलास के अभिशाप से अछूते नहीं रह गए थे अतः उनकी साधना और तत्व चिन्तन में शैथिल्य आ गया था धर्म का तात्विक विकास एकदम रुक गया था उसके स्थान पर भक्ति के बाह्य विलास अत्यंत समृद्ध हो गये थे। जब भक्त लोग इस प्रकार ऐश्वर्य और विलास में संलग्न थे, तो भगवान उससे कैसे वंचित रहते। मठ और मंदिर देवदासियों के नूपुरों की रुनझन से गूंजते रहते थे। भगवान की मूर्तियां "ऐसे-ऐसे कामुकतामय नृत्य देखती हैं जिन्हें देखकर अवध के नवाब को भी ईर्ष्या होती और अपने हरम में जिनका अनुकरण करवाने को कुतुबशाह भी लालायित हो उठता। 26 सम्भवतः धर्म का यही रूप देखकर कविवर भैया भगवतीदास भी कह उठे हैं
"कान्ह करी कुंजन में केलि पर नारिन सौं, ऐसे व्यभिचारिन को ईश कैसे कहिये।''27
जनता धर्म के उसी शृंगारपरक रूप की ओर आकृष्ट हो रही थी जो उनके विलास प्रिय जीवन का समर्थन करता था। धर्म का नीति और विवेक से सम्बन्ध टूट गया था, उसका दार्शनिक आधार लुप्त होने लगा थाराम और कृष्ण की उपासना के अतिरिक्त एक वर्ग धार्मिक भेदभाव से दूर हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतिपादक कबीर, दादू आदि निर्गुण सन्तों की विचारधारा का अनुगमन कर रहा था।
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