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कि यह लगभग विद्रोह मालूम पड़ता था।15 औरंगजेब की दमननीति ने ही आगरा और मथुरा के जाटों, सतनामियों तथा सिखों को तलवार उठाने को विवश कर दिया था किन्तु फिर भी देशभक्ति, राष्ट्रीयता प्राचीन कुल मर्यादा के प्रति गौरव आदि की भावनाएं लुप्त हो रही थीं अन्यथा तत्कालीन साहित्य में इस प्रकार का स्वर अवश्य सुनाई पड़ता। "राजपूतों के दृढ़ स्नायुओं में भी मुगल दरबार की नजाकत और कोमलता प्रवेश कर गई थी। राजस्थानी जौहर का स्थान भ्रष्टाचार ने तथा सबल पौरुष का स्थान अनैतिक विलास ने ले लिया था। सवाई राजा जयसिंह के उत्तराधिकारी पैरों में धुंघरू बांधकर अपने अंतपुर में नृत्य करते थे।"16 अभिजात संस्कृति के नाम पर विलास और प्रदर्शन ही शेष रह गए थे। समाज का बौद्धिक स्तर बहुत नीचा होता जा रहा था। इस युग ने किसी महान साधु सन्त को जन्म नहीं दिया। अमीर और सामन्तों के पुत्र जीवन के आरम्भ से ही अनेक विकृतियों से परिचित हो जाते थे। उनकी स्वार्थान्धता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहां वे प्रतिवर्ष लाखों रुपये खर्च कर यूरोप में बनी हुई सुख भोग और कला की अनेकों वस्तुएं मोल लेते थे, वहां जन साधारण की शिक्षा या सार्वजनिक धन्धों के लिए उन्होंने एक भी छापाखाने या लिथो का पत्थर तक मंगवाने की कभी नहीं सोची।
इतना सब होते हुए भी उस समय "करोड़ों भारतीयों का गृहस्थ जीवन पवित्रतामय और सीधी सादी चंचलता तथा हंसी खुशी से भरपूर था।"17 ये लोग राजनीति से असंपृक्त रहते थे। सोलहवीं शताब्दी में अवतरित वैष्णव सन्तों की वाणी की गूंज उनके हृदय को अनुप्राणित करती रहती थी। वे कीर्तन आदि के माध्यम से राजनैतिक उत्पीड़न के भार को भुलाकर अपना मनोरंजन कर लिया करते थे। मुसलमान सन्तों की कब्र पर उर्स मनाना और हिन्दुओं का समय-समय पर होने वाले मेलों तथा तीर्थस्थानों की यात्रा करना ही मनोरंजन के कुछ साधन रह गए थे। मुग़ल शासकों की आचार्यों और कवियों ने प्रशंसा भी की है। पंडितराज जगन्नाथ शाहजहां के राजकवि थे और उन्होंने उसकी प्रशंसा भी की है। हिन्दी जैन कवियों ने भी जिनमें भैया भगवतीदास भी एक हैं, औरंगजेब की प्रशंसा की है।19 डॉ0 प्रेमसागर जैन के अनुसार इसका कारण यह प्रतीत होता है कि औरंगजेब ने शिक्षा पद्धति की. ओर ध्यान दिया था और उसे सर्वधारण के लिए सुलभ कर दिया था। "उसने मदरसों और मकतों का जाल सा बिछा दिया था। उसके द्वारा शिक्षा प्रणाली
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