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लौटा तब सारा देश बरबाद होकर पूर्णतया वीरान हो चुका था। (प्रसिद्ध पर्यटक मनुची के अनुसार) उन प्रान्तों के खेतों में न तो फसलें ही थी और न कोई वृक्ष ही, उनके स्थान पर वहां सब ओर मनुष्यों और ढोरों की हड्डियां बिखरी पड़ी थी। इस पर भी राजकीय कर न दे सकने के कारण किसानों पर अत्याचार होते थे। इसलिए विवश होकर वे प्रायः लूटमार का व्यवसाय करने लगते थे, शान्ति सुरक्षा के अभाव में व्यापार भी चौपट हो रहा था। एक ओर युद्ध में होने वाला भारी व्यय तथा दूसरी ओर आय के साधन नष्ट होने से शाही कोष रिक्त. हो चुका था। सैनिकों तथा शासकीय अधिकारियों के पिछले तीन-तीन वर्ष के वेतन भी तब तक चुकाये न जा सके थे। रात-दिन आक्रामक युद्ध करते-करते उसके सैनिक भी थक चुके थे और युद्ध की समाप्ति चाहते थे किन्तु औरंगजेब किसी की नहीं सुनता था। औरंगजेब की मृत्यु ही उन्हें युद्ध की समाप्ति का एकमात्र उपाय दृष्टिगत होता था अतः वे इसकी ही कामना करते थे। अपने बेटे मुअज्जम को लिखे हुए उसके एक पत्र में इस प्रकार का संकेत है।
उस युग की राजनीति छल और प्रपंच से ओतप्रोत थी, स्वयं सम्राट भी इनका आश्रय लेता था, फिर सामान्य जनता की तो बात ही क्या थी? ऐसे । अनेक उदाहरण तत्कालीन इतिहास में भरे हुए हैं। औरंगजेब भक्त आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह के पूर्ण आश्वासन पर ही मराठा नेता शिवाजी औरंगजेब के दरबार में उपस्थित हुए थे (सन् 1666 ई0) किन्तु उसने उन्हें बन्दी बना लिया। अपने पुत्र अकबर से युद्ध करते समय उसने एक ऐसा पत्र उसके साथी राजपूत सरदारों के हाथ में पहुंचाया कि उसके प्रति उनका विश्वास समाप्त हो गया और वे उसे असहाय छोड़कर भाग खड़े हुए। सिद्धान्तों और आदर्श की बातें राजनीति से समाप्त होती जा रही थी, किलों का पतन प्रायः किसी विश्वस्त व्यक्ति के विश्वासघात का परिणाम होता था, गोलकुंडा का पतन इसी प्रकार हुआ था। मारवाड़ के राजा जसवंतसिंह की मृत्यु के पश्चात् उनके एकमात्र पुत्र अजीत सिंह को जब राठौर, दुर्गादास के नेतृत्व में औरंगजेब के चंगुल से निकाल ले जाने में सफल हो गए तब वह बहुत समय तक एक नकली राजकुमार का पोषण करता रहा और उसे ही असली अजीत सिंह घोषित करता रहा।
उस समय क्रूरतापूर्वक दमन करने का वातावरण छाया हुआ था। औरंगजेब ने अपने भाईयों का क्रूरतापूर्वक अंत करने के पश्चात् भी यह क्रम
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