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थी। प्रार्थी का निवेदन सम्राट तक पहुंचाने के लिए ही पर्याप्त रुपया ले लिया जाता था। बड़े से लेकर छोटे तक कई अधिकारी घूस लेकर अनुचित पक्षपात या न्याय शासन में मनचाहा हेर फेर कर देते थे।
औरंगजेब का अधिकांश समय युद्ध और संघर्ष में ही व्यतीत हुआ। सीमान्त प्रदेशों पर निरन्तर अशान्ति और संघर्षपूर्ण वातावरण रहता था। उसकी उत्पीड़न नीति ने मथुरा के जाटों, सतनामियों, सिखों को अपना विरोधी बना लिया था। "वह राजपूतों से घृणा करता था, परन्तु जब तक भारत में मिर्जा राजा जयसिंह तथा महाराजा जसवंत सिंह जैसे शक्तिशाली नरेश जीवित रहे वह हिन्दुओं को नष्ट करने की अपनी नीति को खुल्लमखुला व्यवहार में न ला सका।'' मारवाड़ के राजा जसवंतसिंह का निधन होते ही उसने उनके राज्य को हस्तगत किया जिससे राठौर, दुर्गादास के नेतृत्व में उससे निरन्तर संघर्ष करते रहे। मेवाड़ के राजा राजसिंह से भी उसका संघर्ष बहुत समय तक चलता रहा। मराठों के नेता शिवाजी (मृत्यु सन् 1680) तत्पश्चात् उनके पुत्र शम्भाजी और राजाराम से उसका युद्ध होता रहा। उसने अपने अन्तिम 25 वर्ष बीजापुर गोलकुंडा आदि से निरन्तर युद्ध करते हुए दक्षिण में ही व्यतीत किये
और वहीं अहमदनगर में सन् 1707 में उसकी मृत्यु हो गई। युद्ध और संघर्ष से ओतप्रोत वातावरण में रहते हुए कविवर भैया भगवतीदास ने भी 'चेतन कर्म चरित्र' में राजा चेतन तथा मोह के मध्य युद्ध का सजीव और स्वाभाविक चित्रण किया है -
"रणसिंगे बज्जहिं, कोउ न भज्जहि, करहिं महा दोउ जुद्ध।। इत जीव हंकारहिं, निज परवारहि, करहु अरिन को रुद्ध।। उत मोह चलावे, तब दल धावे, चेतन पकरो आज।। इह विधि दोऊ दल, में कल नहि पल, करहिं अनेक इलाज।।"
निरन्तर युद्ध होते रहने के कारण औरंगजेब की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई थी। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में कृषक ही राष्ट्रीय समृद्धि के आधार होते हैं किन्तु इस युग में कृषक ही सर्वाधिक शोषित किए जाते थे। शाही सेना में लगभग एक लाख सतर हजार सैनिक थे और सम्भवतः उनके साथ पड़ाव के नौकरों की संख्या इसकी दसगुनी हो जाती थी। जिस ओर भी यह शाही सेना जाती थी, सारी फसल रौंद दी जाती थी, रही सही खड़ी फसल घोड़ों को खिला दी जाती। गांवों में लूटमार या आग लगा देना सामान्य बात थी। अतः "अपनी अन्तिम चढ़ाई के बाद जब सन् 1705 में औरंगजेब वापस
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