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अधिकार, हिन्दी, गुजराती और बंगला में विशेष गति तथा उर्दू, फारसी का पर्याप्त ज्ञान स्वीकार किया है। 21 इसमें संदेह नहीं है कि भैया भगवतीदास उपरोक्त भाषाओं के विद्वान थे। शत अष्टोत्तरी रचना के अन्तर्गत गुजराती तथा उर्दू भाषा के छंद उनके इन भाषाओं पर अधिकार के द्योतक हैं तथा अनेकानेक रचनाओं में प्रयुक्त अन्य भाषाओं के शब्द तत्सम्बन्धी ज्ञान के परिचायक हैं । मुनिश्री कान्तिसागर जी ने भैया भगवतीदास को कवि होने के साथ-साथ गद्यकार भी बताया है जबकि प्रयास करने पर भी उनकी कोई गद्य रचना मुझे अभी तक उपलब्ध न हो सकी। अतः मुनि जी ने किस आधार पर उन्हें 'गद्यकार' माना है इसका कोई सूत्र नहीं मिल सका।
भैया भगवतीदास संगीत के अच्छे ज्ञाता थे। उनकी रचना परमार्थ पद पंक्ति के पच्चीस पद विभिन्न राग रागनियों में बद्ध हैं तथा दो अन्य पद रागप्रभाती में बद्ध हैं। परमार्थ पदपंक्ति के पद भैरव, देवंगधार, बिलावल, रामकली, काफी, सारंग, धमाल गोड़ी, केदारी, सोरठ, कान्हरी, अडानी, विहाग, मारू, धनाश्री, राग रागनियों में बद्ध है । इतने राग रागनियों में पदों को बांधना कवि के संगीत प्रेम एवं ज्ञान का परिचायक है। अन्य भक्त कवियों के समान उनके काव्य में हमें भक्ति, काव्य और संगीत की त्रिवेणी प्रवाहित होती दृष्टिगत होती है ।
भैया भगवतीदास ने ज्योतिष सम्बन्धी छंद भी लिखे हैं। यद्यपि ज्योतिष सम्बन्धी छंदों की संख्या (जो ब्रह्मविलास में संगृहीत हैं) अति अल्प है। तथा वे ज्योतिष के प्रारम्भिक एवं मूल सिद्धान्तों पर आधारित हैं तथापि इनसे उनके व्यक्तित्व का एक और पक्ष उद्घटित होता है। उन्हें ज्योतिष में पर्याप्त रुचि थी तथा उनका उन्हें ज्ञान भी था ।
इस प्रकार अन्तर्साक्ष्य एवं बहिर्साक्ष्य के रूप में उपलब्ध अत्यल्प सामग्री के आधार पर निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि भैया भगवतीदास अठारहवीं शताब्दी के आगरा निवासी जैन कवि थे जिन्होंने संवत् 1731 से 1755 वि0 तक 'भैया' उपमान से साहित्य का सृजन किया। ये कविवर बनारसीदास के मित्र भगवतीदास तथा हीराचन्द्र प्रणीत पंचास्तिकाय में वर्णित भगवतीदास से भिन्न थे। जिनधर्म में उनकी दृढ़ आस्था थी, और वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।
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