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आचार्य नेमिचन्द्र कृत द्रव्यसंग्रह का तो उन्होंने अनुवाद ही किया है। आचार्य नेमिचन्द्र प्राकृत भाषा के कवि थे, और भैया भगवतीदास भी प्राकृत के विद्वान थे। उनकी सभी रचनाओं का कवि ने गम्भीरता से अध्ययन किया था। इस प्रकार प्राकृत भाषा के आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव भैया भगवतीदास के प्रिय कवि एवं प्रेरणा स्रोत प्रतीत होते हैं।
__ आगरा का तत्कालीन धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण भी कवि के लिये प्रेरणादायक रहा होगा। कवि ने अपनी रचनाओं में दार्शनिक सिद्धान्तों का परम्परागत वर्णन किया है तथा उनके भेद-विभेदों को तो विस्तार दिया है किन्तु उनकी बारीकी में और गहराई में जाने की प्रवृत्ति उनकी नहीं है। जनसाधारण के लिए दार्शनिक सिद्धान्तों को सुगम बनाने के विचार से ही ऐसा किया है। दार्शनिक विवेचन के अध्याय में इस दृष्टि से विचार किया गया है। विनयशीलता
भैया भगवतीदास में हमें विनम्रता की भावना पर्याप्त मात्रा में दिखाई देती है, अहंकार उनमें किंचित मात्र भी नहीं है। उनकी यह आत्म लघुत्व की भावना उनकी रचनाओं में स्थान-स्थान पर दृष्टिगत होती है। ब्रह्मविलास का संग्रह करते समय उन्होंने स्पष्ट कहा है कि मैं अल्पबुद्धि जीव हूँ, कोई विद्वान इसमें अशुदि देखें तो इसका उपहास न करें अपितु इसे शुद्ध कर दें --
"बुद्धिवंत हसियो मति कोय। अल्पमती भाषा कवि होय। .
भूल चूक निज नयन निहारि। शुद्ध कीजियो अर्थ विचारि।।''17 द्रव्यसंग्रह का प्राकृत से हिन्दी भाषा में अनुवाद तथा भाव विस्तार करने के पश्चात् भी उन्होंने यही भावना प्रकट की है -
"गाथा मूल नेमिचन्द करी। महा अर्थनिधि पूरण भरी।। बहुश्रुत धारी जे गुणवंत। ते सब अर्थ लखहिं विरतंत।। हमसे मूरख समझे नाही। गाथा पढे व अर्थ लखाहिं।। काहू अर्थ लखे बुधि ऐन। वांचत उपज्यो अति चित चैन।। जो यह ग्रंथ कवित्त में होय। तो जगमाहिं पढै सब कोय।।
इहि विधि ग्रंथ रच्यो सुविकास। मानसिंह व भगौतीदास।।''18 कवि के कथन 'हमसे मूरख समझे नाही' में उसके हृदय की विनयशीलता तथा आत्म लघुता की भावना स्पष्ट झलक रही है। दूसरों को मुर्ख कहने में अहंकार की गंध आ जाती है। अतः कवि ने दूसरों की अपेक्षा पहले स्वयं को
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