________________
पुनि धन्य-धन्य जिन धर्म यह सुख अनन्त जहाँ पाइये। भैया त्रिकाल निज घट विषै, शुद्ध दृष्टि धर ध्याइये।।''15
एक अन्य स्थान पर कवि ज्ञान-दृष्टि के अभाव में इधर-उधर भटकते हुए जीव को सम्बोधित करते हुए कहता है -
"काहे को देश दिशान्तर धावत, काहे रिझावत इंद नरिन्द। काहे को देवि और देव मनावत, काहे को शीस नवावत चंद।। काहे को सूरज सों कर जोरत, काहे निहारत मूढ मुनिंद।
काहे को शोच करै दिन रैन तं सेवत क्यों नहि पार्श्व जिनंद।''16 जो स्वयं उस कठिन साधना के पथ को पार कर चुके हैं वे ही जीव को उचित दिशा निर्देश दे सकते हैं। जिन, जिनवर, जिनन्द, जिनेश, जिनचंद, अरहंत, सिद्ध, केवली, सब उन्हीं के पर्यायवाची हैं। कवि ने अपनी प्रत्येक कृति के आरम्भ में जिनेन्द्र भगवान की किसी न किसी रूप में वंदना की है। प्रेरणास्रोत
उनकी श्रद्वा कोरी श्रद्वा नहीं थी, न ही उनकी भक्ति अंध-भक्ति थी। उन्होंने जैन दर्शन शास्त्रों का पर्याप्त अध्ययन किया था। गुणस्थान, सप्तभंगी, उपादान निमित्त जैसे दार्शनिक विषयों पर लेखनी उठाना ही इस बात का प्रमाण है। उन्होंने कुछ ग्रंथों का तो संकेत भी दिया है। आचार्य नेमिचन्द्रकृत गोम्मटसार जैसे विशालकाय ग्रंथ का उन्होंने आद्योपांत गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया था। गोम्मटसार जीवकांड के आधार पर ही उन्होंने गुणस्थान सम्बन्धी दोनों रचनाएं-एकादश गुणस्थान पर्यन्त पंथवर्णन तथा चौदह गुणस्थानवर्ती जीव संख्या वर्णन की है। प्रथम रचना के अंत में कवि ने इस तथ्य का उल्लेख भी किया है -
__ "ऐसे भेद जिनागम माहि। गोमठसार ग्रंथ की छाहि।।" कवि ने कर्म सिद्धान्त से सम्बन्धित दोनों रचनाएं-अष्टकर्म की चौपाई तथा कर्मबंध के दश भेद गोम्मटसार के कर्मकांड के आधार पर लिखी हैं। दूसरी रचना के अर्न्तगत कवि ने स्वयं इस तथ्य का संकेत किया है -
"ए दश भेद जिनागम लहे। गोमठसार ग्रंथ में कहे।।" उन्होंने आचार्य नेमिचन्द्र कृत त्रिलोकसार का भी सूक्ष्मतः अध्ययन किया था, उसी के आधार पर उन्होंने लोकाकाश क्षेत्र परिमाण कथन कृति की रचना की है। इस कृति के अन्त में कवि ने इस तथ्य का उल्लेख भी किया है - "इह विधि कही जिनागम भाख। ग्रंथ त्रिलोकसार की साख।।"
(10)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org