________________
सम्भावना इस बात की है कि जब रसिकप्रिया कविवर भैया जी की दृष्टि में आई होगी और उन्होंने उसे पढ़ा होगा तभी उसके सम्बन्ध में अपनी उपर्युक्त सम्मति दी होगी।
उपर्युक्त किंवदन्ती में सत्य का अंश भले ही न हो किन्तु इससे शृंगारिक काव्य के प्रति कवि का दृष्टिकोण अवश्य ही प्रकट होता है। नारी के नख शिख वर्णन को आधार बनाकर रची गई रसिक प्रिया को पढ़कर कवि की प्रतिक्रिया का स्पष्ट आभास एक ही पंक्ति से मिल जाता है- केशवदास ! रसिक प्रिया तुम कहा करी! कितना क्षोभ, कितनी वितृष्णा भरी है इस वाक्य में, जैसे कह रहे हों कि केशव ! यह क्या किया तुमने? क्या नारी देह की यही सार्थकता है? वस्तुतः इस दृष्टि से जैन कवि अपने युग से अप्रभावित ही रहे । जिस समय मुगल शासकों की विलासिता का प्रश्रय पाकर जनमानस भी चंचल हो रहा था, काव्य के क्षेत्र में कवियों की दृष्टि कामिनी के कटि, केश और कटाक्षों में ही उलझकर रह गई थी, उस समय भी ये जैन साधक अध्यात्म और भक्ति की कठिन साधना कर रहे थे। एक ओर कवि देव " जोगहू तैं कठिन संजोग पर नारी कौ" की घोषणा कर रहे थे तो दूसरी ओर जैन कवि शिव-वधू को वरण करने की युक्तियाँ सोच विचार रहे थे। 14 विलासिता, शृंगारिकता तथा अश्लीलता के उस भयंकर प्रवाह में भी जैन साधक अडिग रूप से अध्यात्म की साधना करते रहे, यह वास्तव में महत्व की बात है । जिनधर्म में गहन आस्था
भैया भगवतीदास की जिनधर्म में गहन एवं अनन्य भक्ति थी । वस्तुतः जैन धर्म में गुणों की पूजा होती है व्यक्ति की नहीं। 'जिन' वही कहलाते हैं जिन्होंने अपने कर्मरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली है। जिनेन्द्र भगवान वही हैं, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है ( जित - इन्द्रिय) । उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म जिन धर्म है, उन्हीं के द्वारा प्रदत्त ज्ञान जिनवाणी है। अतः जिनेन्द्र भगवान, जिनधर्म तथा जिनवाणी के प्रति उनकी अटूट आस्था पग-पग पर प्रकट हुई है। जिन धर्म की विशेषताएं बताते हुए कवि कहता है
""
'धन्य-धन्य जिन धर्म, जासु में दया उभय विधि । धन्य-धन्य जिन धर्म, जासु महिं लखै आप निधि । धन्य-धन्य जिन धर्म, पंथ शिव को दरसावै । धन्य-धन्य जिन धर्म, जहाँ केवल पद पावै ।
Jain Education International
(9)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org