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भगवतीदास ने अनेक स्थानों पर इस तथ्य की ओर संकेत किया है कि आगरा नगर जैन धर्मावलम्बियों का प्रमुख स्थान है, तथा जिन धर्मी विद्वान पुण्यवान् तथा अनेक गुणियों का भंडार हैं।11 जहाँ नित्य प्रति धर्म, अध्यात्म तथा शास्त्रचर्चा होती हो वहां की पुण्य-धारा तो स्वतः ही विद्वानों को जन्म देगी। एक स्थान पर तो कवि ने अतिशय भक्ति-भाव से आगरा को धरती की शोभा-रूप मुकुट के समान ही कह दिया है -
"उग्रसेनपुर अवनि पें, शोभत मुकुट समान।
तिह थानक रचना कही, समुझ लेहु गुणवान।।"12 जनश्रुति तथा कवि का अपने युग के प्रति दृष्टिकोण
भैया भगवतीदास के सम्बन्ध में एक किंवदन्ती प्रचलित है जो ब्रह्मविलास में संगृहीत एक पद पर आधारित हैवह पद इस प्रकार है -
"बड़ी नीत लघु नीत करत है बाय सरत बदबोय भरी। फोड़ा बहुत फुनगणी मंडित, सकल देह मनु रोग दरी।। शोणित हाड मांस मय मूरत, तापर रीझत धरी धरी। ऐसी नारि निरखि कर केशव? 'रसिक प्रिया' तुम कहा करी।"13
प्रकाशित ग्रंथ ब्रह्मविलास में इस पद पर एक पाद-टिप्पणी दी गई है "दंत कथा में प्रसिद्ध है कि केशवदास जी कवि जो किसी स्त्री पर मोहित थे, उन्होंने उसके प्रसन्नार्थ 'रसिक प्रिया' ग्रंथ बनाया, वह ग्रंथ समालोचनार्थ 'भैया' भगवतीदास जी के पास भेजा तो उन्होनें उसकी समालोचना में यह कवित्त रसिक प्रिया के पृष्ठ पर लिखकर भेज दिया था।" इसी टिप्पणी के आधार पर श्री कामता प्रसाद जैन ने भैया भगवतीदास को केशवदास का समकालीन मान लिया था। किन्तु भैया भगवतीदास और केशवदास समकालीन हो ही नहीं सकते। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार केशवदास का जन्म सं0 1612 में और मृत्यु सं0 1674 के आस पास हुई थी। रसिक प्रिया की रचना सं0 1648 में हुई। और भैया भगवतीदास का साहित्य रचना काल सं0 1731 से आरम्भ होता है और सं0 1755 में समाप्त होता है। केशवदास जी की मृत्यु सं0 1674 में हो गई, उससे पूर्व यदि भैया भगवतीदास का जन्म मान भी लें तो जिस समय केशवदास जी वृद्ध अवस्था में होंगे उस समय भैया भगवतीदास जी एक शिशु मात्र रहे होंगे। इस प्रकार किसी प्रकार भी कवि केशवदास तथा भैया भगवतीदास के समय का परस्पर मेल नहीं बैठता।
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