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भ्रम को विलास कहा, दुर्जन में वास कहा,
आतम प्रकाश विन पीछे पछतैहै रे।।10 इस प्रकार उन्होंने समाज को धर्म के बाह्य नहीं अपितु आन्तरिक पक्ष से अवगत कराने का प्रयास किया। सांस्कृतिक
औरंगजैब का शासनकाल सामान्य हिन्दू जनता के लिये विपत्तिकाल था। उसकी धर्मान्धता, भेदभावपूर्ण नीति, हिन्दू धर्म के प्रति विद्वेष, मंदिरों तथा मूर्तियों का भंजन, दारुण व्यथा के विषय थे। हिन्दू के लिये हिन्दू होना ही अपराध था। ऐसी नैराश्य की स्थिति में एक ओर तो भक्तिकाल के भक्त कवियों की वाणी की गूंज उनके हृदय को ईश्वर के प्रति आस्था से अनुप्राणित कर रही थी तथा दूसरी ओर जैन भक्त कवि कर्म-सिद्धान्त का संदेश देकर उनमें सन्तोष सुधा की वर्षा कर रहे थे। यही कारण है कि इतने भीषण आघातों को सहकर भी हमारी संस्कृति का विशाल भवन सुदृढ़ बना रहा। इसके अतिरिक्त मुस्लिम संस्कृति का विलासिता का तत्व जन जन में व्यापत हो गया था। अपने शासकों तथा सामन्तों के अनुकरण पर जनमानस कनक, कामिनी और कादम्ब में व्यस्त था, कामिनी के एक कटाक्ष पर अथवा कादम्ब के एक प्याले पर सब कुछ न्यौछावर कर देने की होड़ लगी हुई थी, ऐसी स्थिति में शरीर के स्थल सौंदर्य की उपेक्षा, देह की निकृष्टता, संसार की असारता एवं अनित्यता का संदेश देकर भैया भगवतीदास जैसे आध्यात्मिक कवि चंचल जनमानस पर अंकुश लगाने का कार्य कर रहे थे। विलासिता तथा श्रृंगार की उस आँधी में भी हमारी अध्यात्म प्रधान संस्कृति का वट-वृक्ष धराशायी नहीं हो गया इसका श्रेय इन्हीं कवियों को है जो शान्त रस की धारा से उसकी जड़ों का सिंचन कर रहे थे। साहित्यिक
हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन कवियों को आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने तीन वर्गों में विभाजित किया है। रीति सिद्ध कवि, रीतिबद्ध कवि तथा रीति-मुक्त कवि।1 इस दृष्टि से भैया भगवतीदास का स्थान रीतिमुक्त कवियों में निर्धारित होता है क्योंकि उन्होंने न तो संस्कृत के लक्षण-ग्रंथ लिखने की परम्परा को अपनाया और न ही वे उनसे प्रभावित थे। अलंकार आदि उनके काव्य में सहज स्वाभाविक रूप में आये हैं। वे भावाभिव्यक्ति के साधन ही
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