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________________ न्यूनाधिक मात्रा में स्वीकार किया है। यद्यपि जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर ही, सब प्रकार से वीतराग होकर मोक्ष पद की प्राप्ति करता है किन्तु उसमें बाहृय निमित्त कारण भी कुछ महत्व रखते हैं। ___ आचार्य उमास्वाति ने तत्वार्थ सूत्र में कहा है 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् *62 अर्थात् परस्पर निमित्त होना यह जीवों का उपकार है। धर्म और अधर्म द्रव्य क्रमशः गति और स्थिति में निमित्त बनते हैं अवकाश देना आकाश का उपकार है। शरीर, मन वचन और श्वासोच्छवास ये पुद्गल द्रव्य के उपकार हैं। इस प्रकार द्रव्य परस्पर निमित्त का कार्य करते हैं। संसार के साधारण कार्यों से लेकर मोक्षमार्ग के प्रशस्त कार्यों तक निमित्त कारण कार्य करते है। जैन न्याय के प्रसिद्ध ग्रंथ 'प्रमेय कमल मार्तंड' में अनेक स्थानों पर कार्योत्पत्ति में कारण की अनिवार्यता का प्रतिपादन किया है। कारणों के व्यंजक कारण, अवलम्ब कारण, उपादान कारण, सहकारी कारण आदि उसी महाग्रंथ में स्पष्ट किये गये हैं। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में अमृत चन्द्र आचार्य ने कहा है कि जिस समय जीव रागद्वेष मोह भाव रूप परिणमन करता है, उस समय उन भावों का निमित्त पाकर पुद्गल द्रव्य आप ही कर्म अवस्था को धारण कर लेते हैं और जीव के रागद्वेषादिक भाव भी आप से ही नहीं होते हैं, जैसे-जैसे द्रव्य कर्म उदय में आते हैं वैसे-वैसे ही आत्मा विभाव भावरूप परिणमन करता है। अत: जीव पहले से बंधे कर्मों के निमित्त रागद्वेषादि भाव धारण करता है और जीव के रागद्वेषादि भावों का निमित्त पाकर पुद्गल कर्म शक्ति धारण करते हैं इस प्रकार निमित्त की महत्ता सिद्ध होती है। प्रसिद्ध जैन कवि पं0 दौलत राम जी ने अपनी एक स्तुति में जीव के आत्म कल्याण में निमित्त कारण के रूप में भगवान की वंदना की है "यह लखि निज दुख गद हरण काज, तुम ही निमित्त कारण ईलाज।। जाने तातैं मैं शरण आय, उचरौं निज दुख जो चिर लहाय।।63 कविवर भैया भगवतीदास से पूर्ववर्ती प्रसिद्ध जैन कवि पं0 बनारसीदास ने भी उपादान निमित्त सम्बंधी कुछ दोहों की रचना की है उन्होंने निमित्त की महत्ता को नगण्य माना है। कहते हैं सभी वस्तुएं स्वतंत्र हैं, अपने-अपने स्वभावानुसार कार्य करती हैं जैसे जहाज पानी में बिना पवन के स्वतः ही संतरण करता रहता है (198) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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