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आत्मा की निज शक्ति के द्वारा ही होती है, शरीर तो और पिंजरे का कार्य करता है। निमित्त की महत्ता की जितनी भी सम्भावनाएं हैं, कवि उन सबको एक एक करके निमित्त के मुख से प्रस्तुत करवाता है और उपादान के द्वारा उनका खंडन। एक ही निमित्त से विभिन्न उपादान अपने-अपने स्वभावानुसार विभिन्न भाव ग्रहण करते हैं। मार्ग में एक मृत वेश्या को एक साधु, एक चोर, एक विषयी पुरुष तथा एक कुत्ते ने देखा। साधु ने सोचा कि इसने नरजन्म व्यर्थ गवां दिया। चोर ने सोचा कि एकान्त मिले तो इसके आभूषण उतार लूं। विषयी ने सोचा यदि ये जीवित होती तो मैं भोग भोगता और कुत्ते ने सोचा यदि ये सब चले जायें तो मैं इसके शरीर का भोजन करूं|61 इस प्रकार निमित्त एक ही है किन्तु प्रत्येक उपादान अपने-अपने स्वतंत्र स्वभाव के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से सोचते हैं। यदि निमित्त ही महत्वपूर्ण होता तो सबको एक ही प्रकार से सोचना चाहिए था।
निमित्त की ओर से एक प्रयास और होता है। यदि बाह्य संयोग का कोई महत्व नहीं तो सूर्य, चन्द्रमणि, अग्नि के प्रकाश में ही नेत्र क्यों देखते हैं, अंधकार में क्यों नहीं देखते?
"सूर सोम मणि अग्नि के, निमित्त लखें ये नैन।। अंधकार में कित गयो, उपादान दृग देन।।"
उपादान निमित्त के इस तर्क को भी अत्यंत कुशलता से खंडित कर देता है कहता है
"सूर सोम मणि अग्नि जो, करै अनेक प्रकाश। नैन शक्ति बिन ना लखै, अंधकार सम भास।।"
अर्थात् नेत्रों में यदि देखने की शक्ति ही नहीं तो सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश भी किस काम का? क्या स्वयं की शक्ति के बिना वे देख सकते हैं? निमित्त की तर्कबुद्धि शिथिल होने लगती है अन्ततः वह निरुत्तर होकर परास्त हो जाता है और उपादान की महत्ता सिद्ध हो जाती है
"तब निमित्त हारयो तहां, अब नहिं जो बसाय। उपादान शिवलोक में, पहुच्यो कर्म खपाय।।"
इस प्रकार भैया भगवतीदास ने उपादान को सम्पूर्ण महत्ता प्रदान की है और निमित्त को नितान्त महत्वहीन सिद्ध कर दिया है। किन्तु इस विषय पर सभी विद्वान एकमत नहीं हैं। प्रायः अधिकतर विद्वानों ने निमित्त की महत्ता को
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