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आत्मा का अपने स्वरूप में लीन होना सम्यक् दर्शन, आत्म स्वरूप का ज्ञान सम्यक् ज्ञान तथा आत्मा में लीनता ही सम्यक् चारित्र है। पं0 दौलतराम जी ने यही बात सुन्दर शब्दों में व्यक्त की है
"पर द्रव्यन तैं भिन्न आप में रुचि सम्यक्त्व भला है; आप रूप को जान पनो सो, सम्यग्ज्ञान कला है। आप रूप में लीन रहे थिर, सम्यग्चारित्र सोई; अब व्यवहार मोक्ष मग सुनिये, हेतु नियत को होई।।"46
आत्मा के विकारी भावों को दूर करने की दृष्टि रखकर हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और संचय के भावों का त्याग करना तथा लोक-व्यवहार में न्याय, सदाचार आदि का पूर्ण ध्यान रखना सम्यक् चारित्र कहलाता है।
सम्यक्त्व का अभाव ही मिथ्यात्व है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरंड श्रावकाचार में ऐसा ही कहा है। सम्यक् ज्ञान के अभाव में जीव मिथ्याज्ञानी रहता है, वह संसार के दृश्य पदार्थों को ही सत्य जानता है, अपने को शरीर रूप ही मानता है, शरीर से भिन्न नहीं, यही मिथ्यादर्शन है, ऐसे ही जीव मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं और इसके अनुरूप आचरण-सांसारिक पदार्थों में आसक्त रहना ही मिथ्या चरित्र है। वस्तुतः मिथ्यात्व संसार का मूल है तो सम्यकत्व धर्म का। "सम्यक्त्व रूपी दृढ़ नींव के बिना चरित्र रूपी महल नहीं बन सकता, इसी कारण आचार्यों ने कहा है कि "सम्मं धम्मो मूलो"। सम्यक्त्व धर्म की जड़ है। इसके प्राप्त होते ही कुज्ञान सुज्ञान और कुचारित्र सुचारित्र हो जाता है। सम्यक्त्व होने से ही कर्तव्यकर्तव्य का ज्ञान होकर आत्महित के मार्ग में यथार्थ प्रवृत्ति होती है।" आचार्य कुंदकुंद ने धर्म का मूल सम्यग्दर्शन को ही कहा है।47
भैया भगवतीदास ने भी सम्यक्त्व को मोक्षमार्ग के रूप में स्वीकार किया है। सम्यक्त्व की महिमा तथा मिथ्यात्वी जीव की अवस्थाओं के वर्णन से उनकी लगभग समस्त रचनाएं ओत प्रोत हैं उन्होंने अपनी रचनाओं में यत्र-तत्र सम्यक् दर्शन ज्ञान और चारित्र की महिमा का गान किया है, उदाहरण के लिए निम्न छंद प्रस्तुत है
"राग दोष अरु मोहि, नाहिं निजमाहिं निरक्खत। दर्शन ज्ञान चारित्र, शुद्ध आत्म रस चक्खत।। परद्रव्यनसों भिन्न, चिन्ह चेतनपद मंडित। वेदत सिद्ध समान, शुद्ध निज रूप अखंडित।।'"48
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