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'ही' एकान्तवाद का आग्रह है, मिथ्यात्व का गहन अंधकार है, तो 'भी' में अनेकान्तवाद है, सम्यक्त्व का आलोक जगमगा रहा है।
प्रत्येक वस्तु के विविध स्वभाव और पर्याय होते हैं, यह विचार करके मानव का दृष्टिकोण उदार और विशाल बनता है। यदि सभी मनुष्य इस दृष्टि को अपनाये तो संसार के समस्त विरोध और संघर्ष ही समाप्त हो जायें। भैया भगवतीदास ने भी अपनी रचना 'सप्तभंगीवाणी' के अन्त में यही संकेत किया है कि मिथ्याबुद्धि जीव ही इस दृष्टिकोण को नहीं अपनाते हैं। जो भी प्राणी इस सिद्धान्त को अपने जीवन में उतार लेते हैं उनके सभी मिथ्या भ्रम दूर हो जाते हैं, संघर्ष समाप्त हो जाते हैं
"नय नहिं लखै मिथ्याती जीव। तातै भ्रामक रहै सदीव।
'भैया' जे नय जानहिं भेद। तिनके मिटहिं सकल भ्रमखेद।।" प्रसिद्ध कवि 'दिनकर' ने कहा है- "जैन दर्शन केवल शारीरिक- अहिंसा तक ही सीमित नहीं, प्रत्युत वह बौद्धिक अहिंसा को भी अनिवार्य बताता है, यह बौद्धिक अहिंसा ही जैन दर्शन का अनेकान्तवाद है।''45
सम्यक्त्व और मिथ्यात्व सभी धर्म और दर्शन जीव का चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति को मानते हैं और उसके लिये विभिन्न उपाय एवं साधनों का निरूपण करते हैं। जैन दर्शन मोक्ष प्राप्ति का साधन सम्यक् दर्शन ज्ञान और चरित्र की उपलब्धि को मानता है। जैन-धर्म में इनको रत्नत्रय और त्रिरत्न की उपाधि से विभूषित किया गया है। तत्वार्थसूत्र के प्रथम सूत्र में ही इस तथ्य को स्वीकार किया गया है
'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।' । अर्थात् सम्यक् दर्शन ज्ञान और चरित्र की प्राप्ति ही मोक्ष का मार्ग है। भैया भगवतीदास ने रत्नत्रय और सम्यक्त्व पर पृथक ग्रंथ तो नहीं रचा किन्तु उन्होंने श्री नेमिचन्द्र कृत द्रव्यसंग्रह का पद्यानुवाद किया है। द्रव्यसंग्रह के तीसरे अधिकार में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का विस्तृत वर्णन है। कवि ने उसके अनुवाद के साथ कुछ भाव विस्तार भी किया है। द्रव्य संग्रह में भी रत्नत्रय को मोक्ष का कारण कहा गया है। भैया भगवतीदास भी इसको मोक्ष का मार्ग बताते हुए कहते हैं
"दर्शन सुज्ञान चारित्रमय, यह है परम स्वरूप मम। कारण सु मोक्ष को आपु तैं, चिद्विलास चिद्रूप क्रम।।"
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