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अस्ति नास्ति विन दर्व न होय। नय साधे तैं भ्रम नहिं कोय।।" क्योंकि एक शब्द एक समय में वस्तु के एक धर्म का ही कथन कर सकता है, एक से अधिक का नहीं। अतः वस्तु अवक्तव्य है, इस पकार चतुर्थ भंग है अवक्तव्य। भैया भगवतीदास ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की हैं
"द्रव्य गुण वचननि कह्यो न जाय। वचन अगोचर वस्तु स्वभाव।। जो कहुं एक अस्तिता सही। तौ दूजो नय लागै नही।। जो कहुं नास्तिक गुणदोउ माहि। तौ अस्तिकता कैंसे नाहिं।। अस्ति नास्ति दोउ एकहि बेर। कही न जाय वचन को फेर।। दुहुको एक विचार न होय। एक आगे इक पीछे जोया। कोउ गुण आगे पीछे नाहि। दोउ गुण एक समय के माहिं।।
तातै वचन अगोचर दर्व। सातों नय भाखी ए सर्व।।" अर्थात् वस्तु अस्ति नास्ति दोनों ही है किन्तु उसके एक ही लक्षण को एक समय में कहा जा सकता है, यदि अस्ति को कहते हैं तो नास्ति उपेक्षित हो जाता है और नास्ति कहते हैं तो अस्ति गुण उपेक्षित हो जाता है जबकि दोनों गुण वस्तु में एक साथ ही विद्यमान रहते हैं अतः वह वचनातीत है। इस प्रकार ये चार प्रमुख भंग है। स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्तिनास्ति, स्यात् अवक्तव्य। शेष तीन भंग प्रथम, द्वितीय, तृतीय को चतुर्थ भंग के साथ जोड़ देने से क्रमशः पंचम, षष्ठ और सप्तम भंग बन जाते हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य, स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य।
प्रथम चार भंग ही सप्तभंगी के मूल भंग हैं और प्राय: दार्शनिकों ने इन्हीं चार की विस्तृत व्याख्या की है। शेष तीन को विस्तार नहीं दिया। भैया भगवतीदास ने भी इन्हीं चार भंगों का कुछ विस्तृत वर्णन किया है शेष तीन के केवल नाम ही बताये हैं। सप्तभंगी नितान्त दार्शनिक क्षेत्र का विषय है।
सात भंगों का निर्देश आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय और प्रवचनसार में और आचार्य समन्तभद्र ने आप्त मीमांसा में भी किया है किन्तु सप्तभंगी का परिष्कृत स्वरूप प्रथमतः अकलंक देव ने ही किया है।
यद्यपि अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी दर्शन क्षेत्र के विषय हैं किन्तु व्यावहारिक जीवन में भी इनका अत्यधिक उपयोग है। मेरा ही दृष्टिकोण उचित है दूसरे का अनुचित, इसी से समस्त संघर्ष उद्भूत होते हैं।
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