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किया जाता है।
स्याद्वाद जैन दर्शन का प्राण है। इसका जैन दर्शन के साहित्य में पर्याप्त विवेचन किया गया है। दर्शन के प्रसिद्ध ग्रंथ 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में ग्रंथकर्ता श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने अनेकान्त को नमस्कार किया है। अनेकान्त और स्याद्वाद को स्पष्ट करने के लिये प्रायः हाथी और अंधे मनुष्यों का प्रसिद्ध दृष्टान्त दिया जाता है। डॉ० दरबारी लाल जैन ने इस तथ्य को एक भवन के चार दिशाओं से लिये गये चार फोटो के दृष्टान्त से समझाया है। चारों फोटो सत्य के एक एक अंश हैं सबको मिलाने पर ही पूरे भवन का बोध होगा।
जैन दर्शन के अनुसार यह संसार 6 द्रव्यों से मिलकर बना है। ये छः द्रव्य इस प्रकार हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल। इन छः द्रव्यों का सत् (Existence) ही लक्षण है। अतः सप्तभंगी का पहला भंग है सत् अर्थात् अस्ति। जो सत् है वह दृष्टिभेद से असत् भी है। यद्यपि यह बात सुनने में विरोधी सी प्रतीत होती है, जो 'है' वह 'नही' कैसे हो सकता है ? वस्तु अपने मूल स्वभाव की अपेक्षा से तो सत् है और पर स्वभाव की अपेक्षा से असत् है। उदाहरण के लिये भारत भारतीयों के लिये स्वदेश है किन्तु इंग्लैंड वासियों के लिये स्वदेश नहीं है अतः भारत स्वदेश है और भारत स्वदेश नहीं है। भारतीयों की अपेक्षा से स्वदेश है तो विदेशियों की अपेक्षा से वह स्वदेश नहीं है। इसी प्रकार राम पुत्र भी है, पिता भी है, पति भी है, किन्तु दशरथ का पुत्र है, लव-कुश का पुत्र नहीं है। इस प्रकार एक ही वस्तु अपने स्वभाव की अपेक्षा से सत् है, तो पर स्वभाव की अपेक्षा से असत् है। अतः सप्तभंगी का दूसरा भंग है असत् अर्थात् नास्ति। कविवर भैया भगवतीदास ने इसी विषय पर एक पृथक रचना की है 'सप्तभंगी वाणी', उसमें स्पष्ट कहा है
"अस्ति दरब को मूल स्वभाव। नास्ति परणम निपट निनाव।। अथवा और दरब सो नाहिं। ताहि उपेक्षा नाम कहाहिं।।"
एक ही वस्तु में अस्ति और नास्ति दोनों लक्षण एक साथ रहते हैं एक का कथन करने पर दूसरे की उपेक्षा होती है।
तीसरा भंग है अस्ति नास्ति अर्थात् वस्तु है भी और नहीं भी है। भैया भगवतीदास भी कहते हैं"अस्ति नास्ति गुण एकहि माहि। दुहुगुण द्रवलच्छन ठहिराहिं।
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