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________________ को आवृत कर लेता है। कविवर 'भैया' जी ने भी इसी तथ्य को स्वीकृत किया है "नाम कर्म षष्ठम नितंत। करहि जीव को मूरतिवंत।। अमूरतीक गुण जीव अनूप। तापै लगी प्रकृति जड रूप।। सप्तम गोत करम जिय जान। ऊँचनीच जिय यही बखान।। गुण जु अगुरू लघु ढांके रहै। तातें ऊँचनीच सब कहै।।" वेदनीय कर्म जीव के अव्याबाधत्व गुण को आवृत कर लेता है तथा सुख-दुख का अनुभव कराता है। इसका एक भेद सातावेदनीय स्वस्थ शरीर तथा धन ऐश्वर्य आदि की ओर दूसरा भेद असातावेदनीय रोगी शरीर, निर्धनता आदि कष्टों की प्राप्ति कराते हैं। भैया भगवतीदास ने भी वेदनीय कर्म के ही लक्षण बताये हैं "निरावाध गुण तीजो अहै। ताहि वेदनी ढांके रहै।। साता और असाता नाम। तामहि गर्भित चेतन राम।।" इस प्रकार अष्ट कर्म जीव के वास्तविक रूप को ढककर उसे अज्ञान और मोह के अंधकार में डाल देते हैं। इसीलिए कवियों ने प्रायः इन अष्टकर्मों को आठ ठग के रूप में बताया है, जो जीव के गुण रूपी धन का हरण कर लेते हैं "ठठ्ठा कहै आठ ठग पाये। ठगत-ठगत अब कै कर आये। ठग को त्याग जलांजलि दीजै। ठाकुर हृवै के तब सुख लीजे।।''38 कर्मबंधन होने के पश्चात् कर्मों का उदय होता है अथवा वे उदित हुए बिना ही कर्मफल देने के अयोग्य हो जाते हैं। इसको ही दृष्टि में रखकर कर्मबंध की दस अवस्थायें मानी गयी हैं। कविवर भैया भगवतीदास ने इस विषय पर एक पृथक कृति की रचना की है- "कर्मबंध के दस भेद"। कर्मपरमाणुओं का जीव से संयुक्त होना बंध है। कर्म की स्थिति (फल देने की अवधि) में वृद्धि होना उत्कर्षण है। एक कर्म का दूसरे सजातीय कर्म के रूप में परिणत हो जाने को संक्रमण कहते हैं। कर्म की स्थिति के घटने को अपकर्षण कहते हैं। समय से पूर्व कर्म के उदय हो जाने को उदीरणा कहते हैं। फल देने से पूर्व कर्म के जीव के साथ बंधे रहने की अवस्था सत्ता कहलाती है। कर्म का फल देना उदय तथा कर्म को उदय में आ सकने के (180) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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