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होते ही उसका ज्ञानरूप प्रकट हो जाता है। "भैया" जी के अनुसार
" ज्ञानावरणकर्म जब जाय। तब निज ज्ञान प्रकट सब थाय । " दर्शनावरणीय कर्म जीव के दर्शनगुण को आच्छादित कर लेता है। कविवर 'भैया' जी ने भी इसी बात का प्रतिपादन किया है'दूजो दर्शआवरण और गये जीव देखहिं सब ठौर । । "
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मोहनीय कर्म जीव की सम्यक् बुद्धि को हर लेता है। इसका भेद दर्शनमोहनीय जीव को सत्य मार्ग का ज्ञान ही नहीं होने देता और दूसरा चरित्र मोहनीय सच्चे मार्ग का ज्ञान हो जाने पर भी जीव को उस पर चलने नहीं देता। यही कर्म सर्वाधिक प्रबल होता है । कविवर भैया भगवतीदास ने भी इस कर्म की प्रबलता की ओर संकेत किया है
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'चौथी महा मोह परधान । सब कर्मन में जो बलवान ।। समकित अरू चारित गुणसार । ताहि ढके नाना परकार ।।
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मोह गए सब जानै मर्म । मोह गए प्रगटै निज धर्म ।। मोह गए केवल पद होय । मोह गए चिर रहे न कोय।। ' अन्तराय कर्म जीव के अनन्त वीर्य गुण को आच्छादित कर लेता है। जिसके कारण मनुष्य में साहस पौरुष संकल्प शक्ति अल्प मात्रा में दिखलायी देती है। भैया भगवतीदास ने भी अन्तराय कर्म के विषय में यही संकेत किया है
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'अष्टम अन्तराय अरि नाम। बल अनन्त ढाके अभिराम ।। शकति अनन्ती जीव सुभाय। जाके उदय न परगट थाय ।। इन चार कर्मों-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय को घाति कर्म कहते हैं, क्योंकि ये जीव के स्वाभाविक रूप को आच्छादित करके अत्यधिक हानि पहुँचाते हैं। और शेष चार कर्म आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय अघाति कर्म कहलाते है क्योंकि ये जीव को किंचित् हानि पहुँचाते हैं। आयु कर्म जीव के अवगाहनत्व गुण में बाधा पहुँचाता है। क्योंकि उसे किसी एक शरीर में रोके रखता है। भैया भगवतीदास ने भी यही स्वीकार किया है
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"पंचम आयु कर्म जिन कहै । अवगाहन गुण रोक रहै ।। जब वे प्रकृति आवरण जाहिं। तब अवगाहन थिर ठहराहिं । । '
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नाम कर्म जीव के सूक्ष्मत्व गुण को आवृत कर लेता है। इसी के संयोग
से अमूर्त जीव शरीर धारण करता है । गोत्र कर्म आत्मा के अगुरुलघुत्व गुण
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