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अयोग्य कर देना उपशम है। कर्म का उदय तथा संक्रमण न हो सकना निधत्ति है। कर्म में उत्कर्षण, अपकर्षण का न हो सकना निकाचना। भैया भगवतीदास ने 'कर्मबंध' के दस भेद नामक रचना में इन्हीं अवस्थाओं का परम्परागत वर्णन किया है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं
"दूजो उत्कर्षणबंध एह। थितहिं बढाय करै बहु जेह।। तीजो संकरमण जु कहाय। और की और प्रकृति हो जाय।।
सत्ता अपनी लिए बसंत। षष्टम भेद यह विरतंत।। सप्तम भेद उदय जे देय। थिति पूरी कर बंध खिरेय।।
दशमो बंध निकांचित जहां। थिति नहीं बढ़े घटै नहिं तहां।।" संवर
कर्मों के आस्रव को रोकना ही संवर है। यदि नये कर्मों के आगमन को न रोका जाये तो जीव कभी भी कर्मबंधन से मुक्त नहीं हो सकता। कर्मपरमाणुओं में कर्मफल देने की शक्ति तब ही उत्पन्न होती है जब आत्मा राग-द्वेष युक्त होती है। अतः यह रागद्वेष भावना ही कर्मबंध का कारण है। मोक्ष पद के साधक को रागद्वेष कषाय आदि से अपने हृदय को मुक्त रखना चाहिए। कविवर भैया भगवतीदास ने भी इसी तथ्य का समर्थन किया है
"रागादिक सों भिन्न जब जीव भयो जिंह काल।। तब तिंह पायो मुक्ति पद, तोरि कर्म के जाल।। येहि कर्म के मूल हैं रागद्वेष परिणाम।।
इन ही से सब होते हैं कर्मबंध के काम।।''39 निर्जरा
कर्म-परमाणुओं का झड़ जाना अर्थात् उनकी कर्मफल शक्ति का नष्ट हो जाना ही निर्जरा कहलाता है। वैसे तो हर समय कर्मों की निर्जरा होती रहती है क्योंकि कर्म अपना फल दे चुकने के पश्चात् शक्तिहीन होकर झड़ते रहते हैं। किन्तु तब भी कर्मबंधन से छुटकारा नहीं मिलता, क्योंकि साथ ही साथ रागद्वेष भाव के कारण नए कर्म बंधते चले जाते हैं। अत: निर्जरा संवरपूर्वक ही हो तब ही कुछ लाभ है। भैया भगवतीदास भी इस सम्बन्ध में यही भाव प्रकट करते हैं
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