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पुद्गल के सबसे छोटे अविभागी अंश को अणु अथवा परमाणु कहते हैं और अणु के समूह को स्कंध। कर्म का निर्माण उन सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं से होता है जो ज्ञानेन्द्रियों के लिए अगम्य है। इस प्रकार कर्म एक पुद्गल पदार्थ है जो जीव के साथ बंध जाता है। जीव और कर्म का सम्बंध अनादि है, जैन दर्शन इस बात को मानता है, यदि ऐसा न मानें तो यह शंका उठती है कि यदि जीव प्रारम्भ में सर्वथा शुद्ध था तो वह संसार में आया ही क्यों, और यदि जीव शुद्ध अवस्था में संसार में आता है तो संसार से मुक्त होने के पश्चात् भी जीव इस संसार में आ सकता है, किन्तु ऐसा नहीं होता। अत: जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। भैया भगवतीदास ने भी शत अष्टोत्तरी में इस तथ्य को स्वीकार किया है। वे कहते हैं
"जीवहु अनादि को है कर्महु अनादिको है, भेदह अनादि को है, सर्व दोऊ दल में। रीझवे को है स्वभाव, रीझनाहीं है स्वभाव, रीझते को भाव सो स्वभाव है अनल में।"
कर्मों से जीव का सम्बन्ध अनादि तो है किन्तु अनन्त नहीं है। कर्म संयुक्त रहना जीव का मूल स्वभाव नहीं है। यदि ऐसा होता तो जीव पूर्ण प्रयास करने पर भी कर्म विमुक्त हो ही नहीं सकता था। किन्तु अरहंत और सिद्ध अवस्था जीव के कर्म विमुक्त होने का प्रमाण है। कविवर भैया भगवतीदास भी रागादि निर्णयाष्टक में इसी तथ्य का प्रतिपादन करते हैं
"राग द्वेष की परणति है अनादि नहीं मूल स्वभाव। चेतन शुभ फटिक मणि जैसे, रागादिक ज्यों रंग लगाव।।"
इस प्रकार जीव भ्रमवश कर्म रूपी जाल स्वयं ही फैलाता है और तत्पश्चात् अज्ञानवश स्वयं ही उसमें फंस जाता है। वह उसमें बंदी अवस्था में छटपटाता रहता है, कवि के शब्दों में
"हंसा, हँस हँस आप तु, पूर्व संवारे फंद। तिहिं कुदाव में बंधि रहे, कैसे होह सुछंद।।"
इस कर्मजाल के फंद में पड़कर जीव अपने वास्तविक स्वभाव को ही भूल जाता है वह यह भूल जाता है कि उसमें सिद्ध परमात्मा होने की पूर्ण शक्ति विद्यमान है केवल कर्मों का आवरण ही उसे ईश्वरत्व से पृथक किए
हुए है
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