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पुरस्कार दे यह उचित नहीं लगता। प्रो0 महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य के शब्दों में "यह कैसा अन्धेर है कि ईश्वर हत्या करने वालों को भी प्रेरणा देता है, और जिसकी हत्या होती है, उसे भी, और जब हत्या हो जाती है, तो वही एक को हत्यारा ठहराकर दंड भी दिलाता है। उसकी यह कैसी विचित्र लीला है। जब व्यक्ति अपने कार्य में स्वतंत्र ही नहीं है, तब वह हत्या का कर्ता कैसे ? अतः प्रत्येक जीव अपने कार्यों का स्वयं प्रभु है, स्वयं कर्ता है, और स्वयं भोक्ता है।''31 इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ईश्वर कर्मफलदाता नहीं है। जैन दर्शन के अनसार कर्म अपने कर्ता को स्वयं ही फल देते हैं। कर्म का क्या स्वरूप है वे कैसे जीव से संयुक्त होते हैं तथा कैसे फल देते हैं, यही कर्म सिद्धान्त है। "जैन शास्त्रों में कर्मवाद का बड़ा गहन विवेचन है ..... कर्मों का ऐसा सर्वांगीण वर्णन शायद ही संसार के किसी वाड्.मय में मिले।' '32
संसार में धर्म की सत्ता जीव को मोक्ष प्राप्ति करने के लिए ही है। जीव की मुक्ति के लिए जिन तत्वों के ज्ञान की आवश्यकता है वे जैन दर्शन के अनुसार सात माने गए हैं- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष। जीव अजीव षट द्रव्यों के अन्तर्गत भी आते हैं और सात तत्वों के अन्तर्गत भी, क्योंकि कर्म-परमाणु (अजीव) जीव से संयुक्त होकर ही संसार का कारण बनते हैं। इन कर्म पुद्गलों से जीव और अजीव का षटद्रव्यों के अंतर्गत सृष्टिकर्तृत्व के अध्याय में विस्तार से विवेचन किया गया है। जीव
जीव चेतना युक्त, अमूर्त, रूप, रस, गंध, शब्द रहित है, अनन्तगुण एवं अनन्त शक्ति से परिपूर्ण है, जिनसे वह स्वयं ही अपरिचित रहता है जीव स्वयं ही कर्मों का जाल फैलाता है और स्वयं ही अपने पुरुषार्थ से उसे छिन्न-भिन्न कर मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है, इस दृष्टि से जीव दो प्रकार के हैं- कर्मबद्ध जीव और कर्म मुक्त जीव। इन्हें ही क्रमशः संसारी और मुक्त जीव भी कहते
अजीव
संसार के समस्त अचेतन एवं मूर्तिक पदार्थ अजीव हैं और अजीव के पाँच भेदों में से एक है पुद्गल, जो रूप, रस गंध आदि से युक्त है। व्युत्पत्ति से पुद्गल का अर्थ होता है जो परस्पर संयुक्त और विभक्त होता रहे ऐसा पूर्ण और गलन स्वभाव वाला पदार्थ(33 इसके दो भेद होते हैं अणु और स्कंध।
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