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"तेरह गुणथानक जिय लहूं। सबकी संख्या एकहि कहूं।। आठ अरब सतहत्तर कोड़। लाख निन्याणव ऊपर जोड़।। सहस निन्याणव नव सौ जान। अरू सत्याणव सब परमान।"
इन सब संख्याओं का वर्णन कवि ने गोम्मटसार ग्रंथ के अनुसार किया है। तेरहवें गुणस्थान तक ही जीव जगवासी कहलाता है।
"जब लों जिय इह थानक माहि। तब लों जिय जगवासी कहाहि।। इनहिं उलघि मुक्ति में जाँहि। काल अनंतहि तहां रहाहिं।।"
इस प्रकार तेरहवें गुणस्थान को पार करके जीव मुक्ति प्राप्त करते हैं और फिर अनन्तकाल तक अनन्त सुख का भोग करते हैं। कविवर 'भैया' जी ने जैन दर्शन-ग्रंथों के अनुसार ही गुणस्थानों का वर्णन किया है। यद्यपि उन्होंने प्रत्येक गुणस्थान वर्ती जीवों का स्वभावगत वर्णन नहीं किया तथापि यह साधना कितनी कठिन है। जीव बार बार ऊपर चढ़ने का प्रयास करता है। और नीचे गिर जाता है, यदि अपने को संभाल नहीं पाता तो गिरता ही चला जाता है। इसका कवि ने बार-बार संकेत किया है। जैन दर्शन के अनुसार इस संसार के सब जीव अपने-अपने आध्यात्मिक विकास के अनुसार गुणस्थानों में विभाजित हैं। कवि ने परम्परागत उल्लेख किया है। पं0 कैलाश चन्द्र शास्त्री ने गुणस्थानों को 'आध्यात्मिक उत्थान और पतन के चार्ट' के समान बताया है। तथा डॉ0 हीरालाल जैन ने इनको चौदह 'आध्यात्मिक भूमिकाएं' कहा है।
कर्म-सिद्धान्त संसार में लगभग सभी धर्म इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जीव जैसा कर्म करेगा उसे वैसा ही फल भोगना होगा। साधारणतया यही कर्म-सिद्धान्त है। किन्तु कर्म सिद्धान्त के स्वरूप के सम्बंध में विभिन्न दर्शन अपना पृथक-पृथक मत रखते हैं। "ईश्वर को जगत का नियन्ता मानने वाले वैदिक दर्शन जीव को कर्म करने में स्वतंत्र किन्तु उसका फल भोगने में परतन्त्र मानते हैं। उनके मत से कर्म का फल ईश्वर देता है और वह प्राणियों के अच्छे या बुरे कर्म के अनुरूप ही अच्छा या बुरा फल देता है। किन्तु जैन-दर्शन इस बात को स्वीकार नहीं करता। गहनता से विचार करने पर यह तथ्य तर्कसंगत भी प्रतीत नहीं होता। ईश्वर संसार के प्रत्येक प्राणी के कार्यों का लेखा जोखा रखे यह सम्भव ही नहीं दिखाई देता। वह स्वयं ही प्राणियों को विभिन्न प्रकार के कार्य करने की प्रेरणा दे और फिर उन्हीं कार्यों के लिए उन्हें दंड अथवा
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