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________________ में बैठे हुए मल के समान रहते हैं। अतः मुनि इनको उदय में लाकर इन्हें नष्ट करता है। कवि ने यहाँ भी नाम निर्देश से ही सन्तोष कर लिया है। यहाँ के जीवों की संख्या दो सौ निन्याणवे बताई है। बारहवां गुणस्थान है क्षीण कषाय-इसमें क्षयक श्रेणी वाले मुनि ही आते हैं। मोह आदि को शनैः शनैः क्षीण करते हुए सर्वथा निर्मूल कर देते हैं वे क्षीण कषाय वीतरागी कहलाते हैं। कवि के अनुसार इसमें पाँच सौ अठानवे जीव हैं। "द्वादशमों गुण क्षीण कषाय। पंच अठाणव सब मनिराय।।" तेरहवां गुणस्थान संयोग केवली है। अष्टकर्मों में सर्वाधिक प्रबल मोहनीय कर्म होता है। बारहवें गुणस्थान तक वह नष्ट हो जाता है। उसके नष्ट होते ही अन्य कर्मों की शक्ति स्वत: ही क्षीण हो जाती है। और उसका केवल ज्ञान प्रकट हो जाता है। अत: वह संयोग केवली हो जाते हैं। आत्मा के शत्रु, कर्मों को जीत लेने के कारण ये ही जिन० तथा अरिहंत (अरिहंत) कहलाते हैं। ये भ्रमण करते हुए स्थान-स्थान पर उपदेश देते हैं प्राणीमात्र को संसार सागर से पार उतरने का मार्ग बताते हैं इसीलिए ये ही तीर्थंकर कहलाते हैं। कवि के अनुसार इन केवल ज्ञानियों की संख्या आठ लाख अठानवें हजार पाँच सो दो है। "अब तेरह में केवल ज्ञान। तिनकी संख्या कहूं बखान।। लाख आठ केवलि जिन सुनो। सहस अठाणव ऊपर गुनो।। शतक पंच अरू ऊपर दोय। एते श्री केवलि जिन सोय।।" चौदहवां और अन्तिम गुणस्थान है अयोग केवली। अब केवल-ज्ञानी ध्यानमग्न होकर मन, वचन व शरीर के सब व्यापार बन्द कर देते हैं, तब वे अयोग केवली कहलाते हैं। इसका काल बहुत थोड़ा होता है। तत्पश्चात् ये ध्यान रूपी अग्नि से शेष चार अघाति कर्मों, आयु, नाम, वेदनी, गोत्र को भी नष्ट करके शरीर और जीवन से मुक्त होकर सिद्ध हो जाते हैं। कवि ने इन अयोग केवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या पाँच सौ अठानवें बताई है। "अब चौदम अयोग गुण थान। पंच अठवाण सब निर्वान।।" अन्त में कवि ने तेरहवें गुणस्थान तक के जीवों की संख्या का योग भी दिया है (प्रथम गुणस्थान 'मिथ्यात्व' में तो अनन्तानंत जीव है) आठ अरब सतत्तर करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार दौ सौ सत्तानवे। (171) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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