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"ईश्वर सो ही आत्मा, जाति एक है तंत। कर्म रहित ईश्वर भये, कर्म सहित जगजंत।।34
कर्मों के संयोग से जीव की तीन अवस्थाएं होती है, बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। जो अपने स्वरूप से नितान्त अनभिज्ञ होते हैं तथा शरीर को ही आत्मा समझते हैं वे बहिरात्मा कहलाते हैं। जिन्हें अपने स्वरूप का सच्चा ज्ञान है और उसे प्राप्त करने की दिशा में प्रयत्नशील हैं उन्हें अन्तरात्मा कहते हैं, और जो कर्मबंधन काटकर संसार और जीवन से मुक्त हो चुके, वे परमात्मा कहलाते हैं। ये कर्म ही जीव को इस संसार में अपने संकेतों पर नृत्य कराते हैं। भैया भगवतीदास परमात्म छत्तीसी में जीव की इसी दिशा की ओर संकेत करते हैं
"कर्मन के संयोग तें भये तीन प्रकार।
एक आतमा द्रव्य को कर्म नचावन हार।।" आस्रव तत्व
पुद्गल द्रव्य 23 प्रकार की वर्गणाओं (सूक्ष्मतम परमाणुओं) में विभाजित है। इनमें से एक प्रकार की वर्गणाएं कार्माणवर्गणा (इन्हें ही कर्म परमाणु कहते हैं) कहलाती हैं। इस संसार में जीव किसी न किसी शरीरधारी के रूप में ही दिखाई देता है, और मन, वचन अथवा काय के द्वारा किसी न किसी क्रिया में रत रहता है। मन, वचन और काय के द्वारा की गई क्रियायें योग कहलाती हैं। इन क्रियाओं से प्राणी के चारों ओर वातावरण में भरे हुए परमाणुओं में स्पंदन उत्पन्न हो जाता है और उनमें से कार्माण-वर्गणाएं आत्मा के प्रदेशों की ओर आकर्षित होती हैं। मन, वचन, काय योग का सहारा पाकर कर्म परमाणुओं का जीव की ओर आकर्षित होना ही आस्रव है, तत्वार्थ सत्र में कहा गया है
"काय वाङ्मनः कर्म योगः। स आम्रवः।।"35 बंध तत्व
कर्म-परमाणुओं के आगमन मात्र से कुछ नहीं होता यदि वे आत्मा के साथ संयुक्त न हों। आत्मा के राग द्वेष आदि परिणामों के कारण परमाणुओं में कर्मशक्ति उत्पन्न हो जाती है इन कर्म परमाणुओं का आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह36 सम्बंध हो जाता है। इसे ही कर्म बंध कहते हैं। राग द्वेषादि परिणाम ही कषाय कहलाते हैं, जो मुख्यतः चार मानी गयी हैं- क्रोध, मान,
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