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जीव अपने अपने स्वभावानुसार कार्य करता है तथा उसका फल भोगता है" ईश्वर तो निर्दोष है, कर्ता भुक्ता नाहिं । ईश्वर को कर्ता कहैं, ते मूर्ख जग माहिं || ईश्वर निर्मल मुकुरवत, तीन लोक आभास । सुख सत्ता चैतन्यमय, निश्चय ज्ञान विलास ।।
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अपने अपने सहज के, कर्ता है सब दर्व ।
धर्म को मूल है, समझ लेहु जिन सर्व । । "
जैन धर्म अवतारवाद को स्वीकार नहीं करता। जो जीवन मुक्त हो चुका वह पुनः जन्म क्यों धारण करेगा और यदि देह धारण करता है तो ईश्वर क्योंकर होगा। भैया भगवतीदास निर्णय पचीसी में यही भाव प्रकट करते हैं"ईश्वर के तो देह नहिं, अविनाशी अविकार । ताहि कहै शठ देह धर, लीन्हों जग अवतार ।
जो ईश्वर अवतार ले, मरै बहुर पुन सोय | जन्म मरन जो धरतु है, सो ईश्वर किम होय ।। "
कवि ने वैष्णव धर्म के बहुदेववाद पर भी आक्षेप किया है
" ईश्वर सौं ईश्वर लरैं, ईश्वर एक कि दोय ।। परशुराम अरु राम को, देखहु किन जग लोय ।। रौद्र ध्यान वर्ते जहाँ तहाँ धर्म किम होय || परम बंध निर्दय दशा, ईश्वर कहिये सोय ।। "
एक प्रश्न उठता है- जैन धर्म जब ईश्वर में कर्तृत्व नहीं मानता, उसे वीतराग और निर्विकार मानता है, वह न कुछ ग्रहण करता है न प्रदान करता है तब वहाँ ईश्वर की भक्ति के लिये अवकाश कहाँ है? यह शंका स्वाभाविक है । यह ठीक है जैन दर्शन के अनुसार ईश्वर न सुख प्रदाता है न दुख हर्ता है किन्तु फिर भी वहाँ ईश्वर भक्ति की जाती है क्योंकि आत्मा ही कर्ममल आदि से रहित होकर परमात्मा बन जाती है अतः जैन भक्त ईश्वर की उपासना इसलिये करता है कि उनके परम विशुद्ध, वीतरागी रूप का ध्यान करते करते उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाये और उनकी ही भाँति कठिन साधना कर उसी पद की प्राप्ति की प्रेरणा मिले। पंडित जुगल किशोर जी ने सिद्धिसोपान में यही भाव प्रकट किया है
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