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________________ "कारण, उनका जो स्वरूप है, वही रूप सब अपना है, उस ही तरह सुविकसित होगा, इसमें लेश न कहना है। उनके चिंतन-वंदन से जिन रूप सामने आता है, भूली निज निधि का दर्शन यों प्राप्ति प्रेम उपजाता है।।''27 भैया भगवतीदास ने भी वीतरागी भगवान की भक्ति का यही मन्तव्य बताया है "ज्यों दीपक संयोग से बत्ती करें उदोत। त्यों ध्यावत परमात्मा, जिय परमातम होत।। 28 जिस प्रकार जलते हुए दीपक का सम्पर्क पाकर ही वर्तिका जल सकती है उसी प्रकार परमात्म पद को प्राप्त आत्मा का ध्यान करने से ही आत्मा उसके अनुरूप बन सकती है। इस प्रकार जैन दर्शन में ईश्वर का जो स्वरूप है और उसके सम्बंध में मान्यताएं हैं उन्हीं को कविवर भैया भगवतीदास ने अपनाया है। ईश्वरत्व मीमांसा जैसे गढ़ विषय को भैया जी ने अत्यंत सरल एवं सरस रूप में प्रस्तुत किया है। गुणस्थान आत्मा के स्वभाव अथवा परिणाम को गुण कहते हैं। जैन दर्शन में आत्मा के विभिन्न परिणामों के अनुसार ही चौदह गुण स्थान माने गये हैं। सामान्य अवस्था से विकास करते करते आत्मा मोक्ष तक पहुँच जाती है इस उत्तरोत्तर विकास के चौदह स्तर ही चौदह गुणस्थान हैं।29 मनुष्य के अष्टकर्म ही भवबंधन के कारण होते हैं। इन अष्टकर्मों में से मोहनीय कर्म सर्वाधिक प्रबल और निकृष्ट होता है। यह जीव को उसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होने देता। इसी मोहनीय कर्म के अन्तर्गत चारों कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) आते हैं जिससे राग-द्वेष का बंध होता है। इस मोहनीय कर्म का आवरण ज्यों-ज्यों हटता जाता है त्यों-त्यों आत्मस्वरूप प्रकट होता जाता है। कविवर भैया भगवतीदास ने गुण स्थान सम्बंधी दो कृतियों की रचना की है 1. एकादश गुणस्थान पर्यन्त पंथ वर्णन। 2. चौदह गुण स्थान वर्ति जीव संख्या वर्णन। प्रथम रचना में गुणस्थानों के नाम परिगणन शैली को ही मुख्य रूप से अपनाया गया है। दूसरी रचना में कवि की दृष्टि भिन्न-भिन्न गुणस्थानों के (167) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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