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पचीसी, कर्ता अकर्ता पचीसी आदि अनेकानेक रचनाएं निष्कल भक्ति का प्रमाण हैं।
जैन धर्म ईश्वर को जगत के कर्ताधर्ता, और संहारक रूप में स्वीकार नहीं करता, वहाँ सारी सृष्टि जीव और अजीव के अनादि तथा अकृत्रिम संयोग से स्वयंसिद्ध है। अनादि बत्तीसिका में कवि ने इस तथ्य पर विस्तार से अपने विचार व्यक्त किए है
"अपने अपने सहज सब, उपजत विनशत वस्त।।
है अनादि को जगत यह, इहि परकार समस्त।।" सृष्टि कर्तृत्व के अध्याय में इस विषय का सविस्तार विवेचन किया जा चुका
प्रायः मानव सुख-दुख आदि को ईश्वर की देन कहा करते हैं। कर्मफल में विश्वास करने वाले भी इस प्रकार की धारणा रखते हैं कि मनुष्य कृत कर्मों का लेखा-जोखा ईश्वर रखता है और तत्पश्चात् उसके अनुसार ही उन्हें दंड अथवा पुरस्कार स्वरूप दुख-सुख प्रदान करता है किन्तु जैन दर्शन ईश्वर में कर्तृत्व नहीं मानता, उनका ईश्वर तो शुद्ध निर्विकार है, वह किसी को न सुख देता है न दुख। यदि यह माना जाय कि जीव ईश्वर की आज्ञा अथवा प्रेरणा से ही कार्य करता है तब वास्तविक कर्ता तो ईश्वर ही हुआ, फिर तो भोक्ता भी उसे ही होना चाहिये। कविवर भैया भगवतीदास कर्ता अकर्ता पचीसी में इसी तथ्य को प्रकाशित करते हुए कहते हैं
"जो ईश्वर करता कहैं, भुक्ता कहिये कौन। ___ जो करता सो भोगता, याहै न्याय को मौन।।" यदि ईश्वर स्वयं ही जीवों से अच्छे बुरे कार्य कराता है और फिर उनका दंड या पुरस्कार जीव को देता है तब तो उससे अधिक रागी और द्वेषी जीव कौन होगा। भैया भगवतीदास कर्ता अकर्ता पचीसी में कहते हैं
'जो करता जगदीश है, पुण्य पाप किंह होय। सुख दुख काको दीजिये, न्याय करहु बुध लोय।। नरकन में जिय डारिये, पकर पकर के बाँह। जो ईश्वर करता कहो, तिनको कहा गुनाहै।।"
विभिन्न तर्कों की कसौटी पर कसकर कवि निष्कर्ष यही देता है कि ईश्वर तो नितान्त निर्दोष, सत्चित् आनन्दमय है, वह न कर्ता है न भोक्ता है,
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