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के आवरण को हटा कर वह अपने गुणों और शक्ति को विकसित करके सिद्ध बन जाता है।
जैन दर्शन की दृष्टि से सिद्ध और ब्रह्म में कोई अन्तर नहीं है। आचार्य योगीन्दु ने शुद्ध आत्मा को ब्रह्म कहा है। सिद्ध का भी यही स्वरूप है। भैया भगवतीदास ने भी सिद्ध और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन किया है
"जेई गुण सिद्ध माहिं तेई गुण ब्रह्म माहि, सिद्ध ब्रह्म फेर नाहिं निश्चय निरधार के। सिद्ध के समान है विराजमान चिदानन्द,
ताही को निहार निज रूप मान लीजिये।।" जहाँ तक अमूर्तता, सर्वशक्तिमत्ता, निराकारता, निर्विकारता का प्रश्न है जैन समर्थित सिद्ध और कबीर समर्थित ब्रह्म में कोई अन्तर नहीं है किन्तु जैन दर्शन सिद्ध को सृष्टिकर्ता स्वीकार नहीं करता, और न ही संसार को उसकी माया अथवा प्रतिबिम्ब मानता है। कबीर द्वारा निरूपित आत्मा, विश्व भर में व्याप्त ब्रह्म का एक अंश मात्र है, किन्तु जैन दर्शन में प्रत्येक आत्मा का नितान्त स्वतन्त्र अस्तित्व है, वह किसी का अंश नहीं है और सिद्ध पद की प्राप्ति के पश्चात् भी स्वतन्त्र अस्तित्व रखती है जबकि वहाँ आत्मा ब्रह्म का अंश मात्र होने के कारण ईश्वरत्व प्राप्ति के पश्चात् ब्रह्म में समा जाती है।
भक्तिकाल में सगुण और निर्गुण भक्ति धारा में जैसा पारस्परिक विरोध दिखाई देता है वैसा जैन साहित्य में नहीं है। जैनों के अरहंत सगुण और सिद्ध निर्गुण है। आचार्य योगीन्दु ने उन्हें क्रमशः सकल और निष्कल संज्ञा से अभिहित किया है और परमात्म प्रकाश की संस्कृत में टीका करते हुए श्री ब्रह्मदेव ने 'निष्कल' को 'पंच विधशरीर रहितः' लिखा है। अरहंत ही अवशिष्ट चार अघाति कर्मों का क्षय करके सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। अत: वहाँ विरोध और संघर्ष का अवकाश ही नहीं था, अतः "हिन्दी के जैन कवियों ने यदि एक ओर सिद्ध अथवा निष्कल के गीत गाये तो दूसरी ओर अरहंत अथवा सकल के चरणों में भी श्रद्धा पुष्प चढ़ाये।"26 भैया भगवतीदास ने भी सकल और निष्कल दोनों की समान रूप से उपासना की है। उनकी चतुर्विंशति जिन स्तुति, तीर्थंकर जयमाला, अहक्षितिपार्श्वनाथस्तुति, चतुर्विशति जयमाला आदि कुछ रचनाएं सकल भक्ति का उदाहरण हैं और अनादिबत्तीसिका, वैराग्यपचीसिका, उपादान निमित्त संवाद, ईश्वर निर्णय
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