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________________ है जीव की इस भ्रमपूर्ण अवस्था को त्यागने की। कवियों ने इसे प्रायः निद्रा कहा है और जीव को जगाने का संदेश दिया है, भैया भगवतीदास भी कहते "चेतन नींद बड़ी तुम लीनी, ऐसी नींद लेय नहीं कोय। काल अनादि भये तोहि सेवत बिन जागे समकित क्यों होय।।" कभी कवि उसे मोह और अज्ञान की मदिरा पीकर मदोन्मत्त अवस्था में बताता "पियो है अनादि को महा अज्ञान मोह मद, ताही तें सुधि याही और पंथ लियो है।।" यही कारण है कि जीव तीन लोक का स्वामी होने की शक्ति रखते हुये भी दीन-हीन सा अनाथ दशा में भटकता फिरता है "वे दिन चितारो जहाँ बीते हैं अनादि काल, - कैसे कैसे संकट सहेहु विसरत हो। तुम तो सयान पै सयान यह कौन कीनो, तीन लोक नाथ हवै के दीन सो फिरत हो।। जिस क्षण जीव को इस बात की प्रतीति हो जाती है कि "मैं हि सिद्ध परमात्मा, मैं ही आतमराम।। मैं ही ज्ञाता ज्ञेय को, चेतन मेरो नाम।। मैं अनन्त सुख को धनी, सुखमय मोर स्वभाय।। अविनाशी आनन्दमय, सो हो त्रिभुवन राय।। 24 उसी क्षण से मोह और अज्ञान की निशा ढलने लगती है, शरीर को अपने से भिन्न पुद्गल द्रव्य जान कर, उससे मोहममता छूटने लगती है, कर्म बंधन शिथिल पड़ने लगते हैं और जीव कठिन साधना करते हुए शनैः शनैः सिद्ध पद प्राप्ति के पथ पर अग्रसर होने लगता है। कवि ने इस प्रतीति मात्र को चिन्तामणि सदृश बताया है "जब तैं अपनो जिउ आपु लख्यों, तब तैं जु मिटी दुविधा मन की। यों सीतल भयो तब ही सब, छांड दई ममता तन की।। चिंतामणि जब प्रगट्यो घर में, तब कौन जु चाहि करै धन की।। जो सिद्ध में आपु में फेर न जानै सो, क्यों परवाह करै जन की।। 25 इस प्रकार प्रत्येक आत्मा परमात्मा बनने की शक्ति से युक्त है। अपने कर्मों (163) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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