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________________ अभिहित किया गया है। आचार्य मानतुंग ने "भक्तामर स्तोत्र" में जिनेन्द्र भगवान को बुद्ध, शंकर, धाता और पुरुषोत्तम कहा है किन्तु बुद्ध से तात्पर्य राजा शुद्धोदन के पुत्र गौतम बुद्ध से नहीं है, अपितु वे ज्ञान की गरिमा से युक्त हैं इसलिये बुद्ध हैं, तीनों लोक के जीवों को सुख शान्ति प्रदान करते हैं इसलिये शंकर हैं, मुक्तिमार्ग के आदि प्रवर्तक हैं इसलिये विधाता और बह्मा हैं, सम्पूर्ण पुरुषों में उत्तम हैं अतः पुरुषोत्तम हैं।23 वहाँ ईश्वरत्व अनादि नहीं, अथवा किसी का प्रसन्न होकर दिया हुआ वरदान नहीं, वरन् जीव के अथक परिश्रम और कठिन पुरुषार्थ का परिणाम है। जैन दर्शन जीव को अनन्त शक्ति और अनन्त गुणों का स्वामी मानता है। इनमें से चार को मुख्य माना गया है- अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य- इन्हें अनन्त चतुष्टय कहते हैं। किन्तु जीव अपने इन गुणों से तथा शक्ति से अनभिज्ञ रहता है। रागद्वेष की परिणति के परिणामस्वरूप अनादिकाल से कर्म परमाणु उससे संयुक्त हैं, उन्होंने उसके गुणों को आवृत कर रखा है जिससे जीव अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाता, वह यह नहीं जान पाता कि सिद्ध होने की समस्त शक्ति और गुण मेरे भीतर ही विद्यमान है। कविवर भैया भगवतीदास ने इस तथ्य का बार बार उल्लेख किया है, वे जीव को सचेत करते हुए सिद्ध चतुर्दशी में कहते हैं "खोल दृग देखि रूप, अहों अविनाशी भूप। सिद्ध की समान सब, तोपैं रिद्ध कहियें।।" एक अन्य स्थान पर वे जीव को उसका वास्तविक परिचय कराते हुए कहते "त ही वीतराग देव राग द्वेष टारि देख, तू ही तो कहावै सिद्ध अष्ट कर्म नाम तैं।" जीव के ऊपर अज्ञान और भ्रम का आवरण इतना घनिष्ठ पड़ जाता है कि वह यह भी नहीं जान पाता कि वह पुद्गल रूप शरीर से भिन्न है। वह अपने को शरीर रूप ही समझता है। प्राणी की इसी अज्ञानावस्था से युक्त आत्मा को बहिरात्मा माना है, जब जीव इस भेद को जान लेता है और अपने को शरीर व कर्म-पुद्गलों से मुक्त करने का प्रयास करने लगता है तब वह अन्तरात्मा कहलाता है और जब वह आत्मा से संयुक्त कर्म मल को नष्ट कर शुद्ध आत्मस्वरूप रह जाता है तब वह परमात्मा कहलाता है। इस प्रकार परमात्मा अथवा ईश्वर बनने की समस्त शक्ति जीव में अन्तर्निहित है। केवल आवश्यकता (162) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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