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________________ दर्शन किसी ऐसी अनादि सिद्ध परमात्मा की सत्ता को अस्वीकार करता है और उसके यहाँ ईश्वर एक नहीं अनेक हैं। वस्तुतः 'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति से ही ईश्वर का स्वरूप उद्घाटित हो जाता है। 'जिन' के द्वारा प्रवर्तित धर्म है, जैन धर्म, और 'जिन' वे कहलाते हैं जिन्होंने अपने काम, क्रोध आदि विकारों पर विजय प्राप्त करली है- जिन्होंने अपने कर्मरूपी शत्रुओं को पराजित कर दिया है। जैन धर्म में जिनेन्द्र भगवान का जयजयकार किया जाता है। ये जिनेन्द्र (भगवान) भी कोई ईश्वरीय अवतार नहीं हैं, न तो यह शब्द किसी व्यक्ति विशेष का वाचक है, वरन् जिनेन्द्र वही है जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली हो। इस प्रकार यहाँ अपने विकारों पर विजय प्राप्त करते हुए, कर्म मल को नष्ट करके, कोई भी आत्मा परम शुद्ध होकर जीवन और संसार के बंधन से मुक्त हो सकता है ये मुक्त जीव ही जैन धर्म में ईश्वर कहलाते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन किसी अवतार की कल्पना न करके जीव के पुरुषार्थ को महत्व देता है । पुरुषार्थ के द्वारा ही जीव, मुक्ति की यह कठिन साधना कर पाता है। राग द्वेष आदि मानसिक विकारों को क्षय करते-करते जब यह जीव चार कर्मों- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय का नाश कर देता है तो उसका अनन्त ज्ञान गुण प्रकट हो जाता है वे सर्वज्ञ हो जाते हैं, ये ही केवल ज्ञानी कहलाते हैं, अतः सर्वज्ञ का ही दूसरा नाम केवली भी है। ये अपने कर्मरूपी शत्रुओं को जीत कर ही इस अवस्था तक पहुँचते हैं अतः ये ही अरिहंत (अरि + हंत) कहलाते हैं इस अवस्था तक पहुँच कर वे पूजनीय हो जाते हैं अतः अर्हत् कहलाते हैं। इस अवस्था में पहुँचकर इनमें से जो केवली अपनी ही मुक्ति का उपाय करते रहते हैं वे सामान्य केवली कहलाते हैं और जो संसारी जीवों को मुक्ति का मार्ग बताते हुए भवसागर से पार उतरने में उनके सहायक बनते हैं वे तीर्थंकर केवली कहलाते हैं और जब ये शेष चार अघाति कर्मों- नाम, आयु, गोत्र, वेदनीय का क्षय कर, जीवन मुक्त हो, शुद्ध आत्मा रूप में लोकाकाश के अग्रभाग में जा विराजते हैं तब सिद्ध कहलाते हैं। यहाँ अरहंत पद को सिद्ध की अपेक्षा अधिक महत्व दिया गया है क्योंकि इसी अवस्था में वे संसार के लोकहित का कार्य सम्पन्न करते हैं । इसीलिये जैन-धर्मावलम्बियों में सर्वाधिक लोकप्रिय पंच परमेष्ठी नमस्कार मंत्र में सिद्ध से पहले अरहंत की वंदना की गयी है। और इसीलिये चौबीस तीर्थंकरों को अधिक मान्यता दी गई है। इस प्रकार जैन धर्म में ईश्वर एक नहीं अनेक और असंख्य हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे तथा उनको विभिन्न नामों से (161) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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