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जाता हैं क्योंकि वहीं तक धर्म द्रव्य गमन में सहायक होता है। लोक के बाहर धर्म द्रव्य नहीं है इसलिये जीव भी वहाँ नहीं जा सकता। डॉ० वासुदेव सिंह का यह कथन ‘“लोकाकाश षडद्रव्यों से युक्त है, किन्तु अलोकाकाश में केवल निर्मल निर्विकार आत्मा ही पहुँच पाते हैं, 20 भ्रांतियुक्त है। मोक्ष प्राप्ति के पश्चात् आत्मा का क्षय नहीं होता जैसा कि बौद्धमत मानता है और न ही मुक्त जीव सर्वलोक में व्याप्त होता है वरन् लोकाकाश के अग्रभाग में स्थित हो जाता है। जैन धर्म में मंगलसूचक चिह्न 'स्वास्तिक' के ऊपर अर्द्धचन्द्र इसी सिद्ध शिला का प्रतीक है। 21
भैया भगवतीदास ने भी जीव के कर्म विमुक्त हो जाने के पश्चात् लोक के अग्रभाग में सिद्धावस्था में अनन्तकाल तक निवास करने की ओर संकेत किया है
"लोकको जु अग्र तहां स्थित है अनन्त सिद्ध, उत्पाद व्यय संयुक्त सदा जाको वास है। अनन्तकाल पर्यन्त थिति है अडोल जाकी, लोकालोक प्रतिभासी ज्ञान को प्रकाश है। निश्चै सुख राज करै बहुरि न जन्म धरै, ऐसो सिद्ध राशनि को आतम विलास हैं। '
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इस विषय के सम्बंध में गहनता से अध्ययन करने के पश्चात् निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि लोक और अलोक की स्थिति बताने के पश्चात् कवि की दृष्टि उसके विभिन्न क्षेत्रों के परिमाण कथन पर ही केन्द्रित रही है, उनकी विशेषताओं का विस्तार से वर्णन नहीं किया है।
ईश्वरत्व मीमांसा
लगभग सभी धर्मों में ईश्वर को किसी न किसी रूप में मान्यता प्राप्त है ईश्वर, अल्लाह, गॉड, परम ब्रह्म, ब्रह्मा, विष्णु आदि ईश्वर वाचक शब्द इस बात के प्रमाण हैं। प्रायः ईश्वर को अनादि काल से विद्यमान, सर्वशक्तिमान, सृष्टिकर्ता, संसार के जीवों के भाग्यविधाता, उन्हें सांसारिक सुख एवं कष्टों के प्रदाता के रूप में स्वीकार किया गया है, किन्तु जैन धर्म में ईश्वर का स्वरूप इससे भिन्न है। प्रायः अन्य धर्म किसी एक अनादि शक्ति के रूप में ईश्वर को मानते हैं, जिनमें से अवतार वाद के समर्थक उसी परमशक्ति का समय समय पर भिन्न-भिन्न रूपों में अवतार लेना स्वीकृत करते हैं किन्तु जैन
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