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योग करने का ऊर्ध्वलोक का क्षेत्रफल एक सौ सैंतालिस घन राजू आता है। भैया भगवतीदास ने भी ऊर्ध्वलोक का क्षेत्रफल एक सौ सैंतालिस घन राजू ही माना है
"सब गिनती ऊपर की दीस। राजू इक सौ सैंतालिस।।"
तिलोयपण्णत्ति में यही तथ्य गणित द्वारा सिद्ध किया गया है। लोक को 3 से गुणा करके तत्पश्चात 7 का भाग देकर जो लब्ध आवे वे ऊर्ध्व लोक का घनफल है
343 x 3 7 = 14718 ऊर्ध्वलोक के 16 स्वर्ग नवग्रैवेयक में 63 पटल हैं मध्य में यह सब स्वर्गलोक है तथा इसमें वैमानिक अथवा विमानवासी देव रहते हैं। ऊर्ध्वलोल के एक सौ सैंतालिस घन राजू तथा अधोलोक के एक सौ छियानवें घन राजू के योग से कुल लोकाकाश का क्षेत्रफल आ जाता है तीन सौ तैंतालिस घन राजू।
मोक्ष क्षेत्र अथवा सिद्ध लोक सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक विमान से बारह योजन मात्र ऊपर आठवी पृथ्वी स्थित हैं ईषत्प्राग्भार, इसकी मोटाई मध्य में आठ योजन, दोनों ओर क्रमशः घटते-घटते अंत में एक अंगुल मात्र है। यह क्षेत्र उत्तान धवल छत्र के सदृश है। इसकी परिधि मनुष्य क्षेत्र के समान पैंतालिस लाख योजन है। यही सिद्ध शिला है, यही सिद्ध क्षेत्र है। संसार से मुक्त होकर जीव यहीं अनन्तानंत काल के लिये निवास करता है। इसलिये यही मोक्षस्थान है। सिद्ध का अर्थ 'प्राप्ति' होता है अतः 'मोक्ष' और 'सिद्धि' विपरीत भाव के बोधक प्रतीत होते हैं, किन्तु ऐसा है नहीं। "आत्मा के गुणों को कलुषित करने वाले दोषों को दूर करके शुद्ध आत्मा की प्राप्ति को 'सिद्धि' कहते हैं।''19आत्मस्वरूप की सिद्धि से ही जीव जन्म जरा मृत्यु के बंधनों से मुक्ति पाता है अत: सिद्धि और मुक्ति एक ही भाव के द्योतक हैं।
जैन दर्शन में मोक्ष स्थान की मान्यता भी अन्य दर्शनों से निराली है। पुरुषाकार लोक के नाभिदेश में मनुष्य लोक हैं, अधोभाग में सात नरक हैं, ऊर्ध्वलोक में स्वर्ग है तथा मस्तक प्रदेश में मोक्ष स्थान है। कर्म बंधन से मुक्त होते ही जीव शरीर से निकलकर ऊपर की ओर जाता है क्योंकि ऊर्ध्वगति गमन ही उसका स्वभाव है। लोकाकाश के अग्रभाग में ही स्थित इसलिये हो
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