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स्थित होने में सहायता करता है। यह भी एक अमूर्तिक और अचेतन द्रव्य है जो समस्त लोकाकाश में व्याप्त है। इसकी स्थिति वैसी ही है जैसे पथिक के लिये छाया। यह न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त के लगभग समान है। भैया भगवतीदास ने इस अधर्म द्रव्य के इसी गुण का उल्लेख किया है" चौथो द्रव्य अधर्म है, जब थिर तबहिं सहाय । । देय जीव पुद्गलन को, लोक हद्द लों भाय ।। आकाश द्रव्य
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आकाश द्रव्य का लक्षण है स्थान देना। आकाश वही है जो सभी द्रव्यों को अवकाश देता है। यह भी अचेतन अमूर्तिक और सर्वव्यापी है। जैन दर्शन के अनुसार इसके दो भेद हो जाते हैं- लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश सर्वव्यापी आकाश के मध्य में है, इसी में छहों द्रव्य विद्यमान हैं, इसके अतिरिक्त शेष आकाश शून्य है अनन्त है शुद्ध आकाश है इसे ही अलोकाकाश कहते हैं, किसी अन्य पदार्थ की वहाँ पहुँच नहीं है। आकाश के विषय में कविवर भैया भगवतीदास कहते हैं
" जीव आदि पंच पदार्थनि को सदा ही यह, देत अवकाश तातैं आकाश नाम पायो है। ताके भेद दोय कहे, एक है अलोकाकाश, दूजो लोकाकाश जिन ग्रंथनि में गायो है। ''11 काल द्रव्य
जो वस्तु मात्र के परिवर्तन कराने में सहायक है उसे काल द्रव्य कहते हैं। काल द्रव्य के निमित्त से ही अन्य द्रव्यों में समय-समय में परिवर्तन होता रहता है। बिना काल द्रव्य के परिवर्तन असम्भव है यह भी अचेतन, अमूर्त है और लोकाकाश में व्याप्त है। दिन, वर्ष, भूत वर्तमान भविष्य सब इसी के पर्याय हैं। कविवर 'भैया' ने काल के अन्य द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक होने के इसी स्वभाव की ओर संकेत किया है
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'जोई सर्व द्रव्य को प्रवर्त्तावन समरथ,
साई कालद्रव्य बहुभेद भाव राजई || निज निज परजाय विषै परिणवै यह,
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काल की सहाय पाय करै निज काजई ।।
इस प्रकार इन छः द्रव्यों से सम्पूर्ण सृष्टि निर्मित है। अब प्रश्न उठता
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