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यह जीव अपने आत्म स्वभाव को तो भूला हुआ है और पर द्रव्यों की प्रीति में ही मग्न हो रहा है यही तो संसार बंध का कारण है। कवि ने जीव और पुद्गल इन दोनों की भिन्नता का बार-बार उल्लेख किया है
"चेतनचिन्ह ज्ञान गुण राजत, पुद्गल के वरणादिक रूप।। चेतन आपरू आन विलोकत, पुग्गल छांह धरै अरू धूप।। चेतन कै थिरता गुण राजत, पुग्गल के जड़ता जु अनूप।। चेतन शुद्ध सिधालय राजत, ध्यावत है शिवगामी भूप।।"8
इसीलिए तो कवि ने जीव को स्थान-स्थान पर पुद्गल से प्रेम न करके आत्मस्वरूप को समझने का संदेश दिया है
"याही देह देवल में केवलि स्वरूप देव,
ताकी कर सेव मन कहाँ दौड़े जात है।।" और जब जीव को आत्म स्वरूप की सम्यक् प्रतीति हो जाती है तभी मोह और अज्ञान की तमिस्रा छंट जाती है, राग और द्वेष के बंधन शिथिल होने लगते हैं और जीव शनैः शनैः परमात्मपद की प्राप्ति के पथ पर बढ़ने लगता है। इस प्रकार पुद्गल द्रव्य जीवं द्रव्य को मोह और अज्ञान में रखकर उसका अत्यधिक अहित करता है। धर्म द्रव्य
धर्म द्रव्य से तात्पर्य किसी शभ कर्म से नहीं है। यह जैन धर्म का पारिभाषिक शब्द है। यह एक अचेतन और अमूर्तिक द्रव्य है, जो जीव और पुद्गल द्रव्य गतिशील होते हैं उनको गतिशीलता में सहायता करता है जैसे जल मीन को चलने में सहायता देता है। यह तत्व लोकाकाश के कण-कण में व्याप्त है। अब वैज्ञानिक भी इस द्रव्य की सत्ता को स्वीकार करने लगे हैं।
भैया भगवतीदास ने इस द्रव्य की सत्ता को स्वीकार कर उसकी इन्हीं विशेषताओं का उल्लेख किया है"जब जीव पुद्गल चलै उठि लोकमध्य,
तबै धर्मास्तिकाय सहाय आय होत है। जैसे मच्छ पानी माहिं आपुहि तै गौन करे,
नीर को सहाय सेती अलसता खोत है।'' अधर्म द्रव्य
अधर्म द्रव्य धर्म के विपरीत, ठहरते हुए जीव और पुद्गल पदार्थों को
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