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ही रूपवान् तत्व है शेष पांचों द्रव्य अरूपी अमूर्तिक हैं अतः यह रूप, रस, गंध, वर्ण आदि से युक्त है । समस्त दृश्यमान जगत् इस 'पुद्गल' द्रव्य का ही विस्तार है। यह इन्द्रियग्राह्य है। भैया भगवतीदास ने भी पुद्गल द्रव्य के ये ही लक्षण बताते हैं
" वर्ण पंच स्वेत पीत हरित अरुण स्याम, तिनहु के भेद नाना भाँति के विदीत है। रस तीखो खारो मधुरो कडुओ कषायलो, इनहूं के मिले भेद गणती अतीत है। तातो सीरो चीकनो रूखो नरम कठोर, हरूवो भारी सुगंध दुर्गंध मयी रीत है ।
नूरति सुपुद्गल की जीव है अमूरतीक, नैव्योहार मूरतीक बंध तै कही है। 6
अर्थात् पुद्गल पांच वर्ण, पांच रस, आठ स्पर्श तथा दो प्रकार की गंध से युक्त
है।
यद्यपि पुद्गल द्रव्य अचेतन है तथापि उसमें अपूर्व शक्ति होती है। पौद्गलिक पदार्थों के आकर्षण में पड़कर ही जीव अपने वास्तविक स्वरूप को भूला रहता है और संसार सागर में भटकता रहता है। वह जीव के अनन्त ज्ञान दर्शन आदि गुणों पर आवरण डालकर ढक देता है जिससे जीव स्वयं को पुद्गल रूप ही समझने लगता है। वह अपने को शरीर से भिन्न नहीं मानता, शरीर को ही 'मैं' कहता है और उसकी क्रियाओं को ही अपनी क्रियाएं मानता है। उसके कष्ट में अपने को दुखी तथा उसके सुख में अपने को सुखी मानता है। जीव के पुद्गल के प्रति इस घनिष्ठ प्रेम को कविवर 'भैया' ने एक रूपक के माध्यम से अत्यंत मनमोहक ढंग से वर्णित किया है। चेतन (जीव ) की रानी सुमति उसे सचेत करते हुए कहती हैं
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'आतम के वंश को न अंश कहु सुन्यो कीजे, पुग्गल के वंश सेती लाग लहलहे हो || पुग्गल के हारे हार, पुग्गल के जीते जीत, पुग्गल की प्रीति संग कैसे बहबहे हो ।। लागत हो धाय धाय, लागे न उपाय कछु, सुनो चिदानन्द राय कौन पंथ गहे हो।। 7
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