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________________ "अस्तु: अनादि बद्ध आत्मा है, स्वकृत-कर्मफल का भोगी, कर्मबन्धफल भोग नाश से, होता मुक्ति रमा योगी। ज्ञाता दृष्टा निजतनु परिमित, संकोचेतर-धर्मा हैं, स्वगुण युक्त रहता है हरदम, ध्रौव्योत्पत्ति व्ययात्मा है।।"3 भैया भगवतीदास भी जीव के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं"जीव है सुज्ञान मयी चेतना स्वभाव धरै,। जानिबो और देखिबो अनादिनिधि पास है। अमूर्तिक सदा रहै और सो न रूप गहै, निश्चै नै प्रवान जाके आतम विलास है। व्योहारनय कर्ता है देह के प्रमान मान, ___ भोक्ता सुख दुखनि को जग में निवास है। शुद्ध नै विलोके सिद्ध करम कंलक बिना, ऊर्द्ध को स्वभाव जाको लोक अग्रवास है।" इस जीवात्मा को दो प्रकार का माना गया है, संसारी और सिद्ध। सिद्ध, जो संसार के बंधन से मुक्त हो चुके हैं, शेष सब संसारी हैं। समस्त संसारी जीव चार गतियों में विभाजित हैं नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति। इनमें से मनुष्य गति सर्वोत्तम मानी गई है क्योंकि जीव इस गति से ही मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है और यह मनुष्य गति जीव को बड़ी कठिनाई से बहुत से पुण्य कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होती है। कविवर भैया भगवतीदास ने भी अनेक बार इस तथ्य की ओर संकेत किया है काल अनादि तैं फिरत फिरत जिय अब यह नरभव उत्तम पायो। समुझि समुझि पंडित नर प्रानी तेरे कर चिन्तामणि आयो। जैन दर्शन के अनुसार संसारवर्ती अनन्त जीवों को दो भागों में विभाजित किया गया है स्थावर और त्रस। स्थावर एकेन्द्रिय जीव होते हैं जो पांच प्रकार के होते हैं, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक। इनके केवल स्पर्श इन्द्रिय ही होती है। त्रस में द्वि-इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी प्रकार के जीव आ जाते हैं। स्थावर के पांच और त्रस भेदों को मिलाकर ही षटकाय जीव माने गये हैं। पुद्गल द्रव्य यह द्रव्य अचेतन (जड़) है। इसका प्रमुख लक्षण है मूर्त्तत्व। पुद्गल (147) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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