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________________ अपना भिन्न-भिन्न स्वभाव होता है, उनका स्वभाव भी अनादि काल से जैसा है अनन्त काल तक वैसा ही रहेगा। सभी द्रव्यों का अपने-अपने गुण और पर्याय के अनुसार परिणमन होता रहता है और सृष्टि स्वतः ही चलती रहती है। कोई किसी द्रव्य का निर्माता नहीं है। भैया भगवतीदास ने इस बात को अनादि बत्तीसिका में बहुत ही स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित किया है "छहों सु द्रव्य अनादि के, जगत माहि जयवंत। को किस ही कर्ता नहीं, यों भाखै भगवंत।। अपने गुण परजाय में, बरतें सब निरधार।। को काहू मेटै नहीं, यह अनादि विस्तार।।" जैन-दर्शन के अनुसार जिन षट द्रव्यों के अस्तित्वस्वरूप यह सृष्टि अनादि काल से चली आ रही है, वे इस प्रकार हैंजीव द्रव्य __ इस जीव द्रव्य का प्रमुख लक्षण है चेतना, जिसके कारण यह अन्य पांच द्रव्यों से नितान्त भिन्न है। इसीलिये प्रायः इसे चेतन नाम से ही पुकारते हैं। कविवर भगवतीदास ने भी इसे चेतन द्रव्य नाम दिया है “षष्ठम चेतन द्रव्य है, दर्शन ज्ञान स्वभाय।। परणामी परयोग सों, शुद्ध अशुद्ध कहाय।। '2 इसी चेतनता के कारण यही देखने सुनने और जानने वाला है अर्थात् ज्ञानमय है। इसकी दूसरी विशेषता है अमूर्तत्व। यह स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से परे है, अगोचर है। जिस शरीर को, धारण करता है उसी के अनुरूप आकार ग्रहण कर लेता है, अत: स्वदेह परिमाण है। जीव स्वयं ही कर्म करता है, स्वयं ही उनका फल भोगता है, स्वयं ही कर्मजाल के बंधन में पड़कर नाना जन्म धारण करता है किन्तु अनन्त शक्तिवान है। अपने पुरुषार्थ के बल पर उन कर्मबंधनों को काटकर मुक्त अर्थात् सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है अतः उसमें परमात्मपद प्राप्त करने की सम्पूर्ण शक्ति विद्यमान रहती है। यह बात भिन्न है कि संसारी जीव अज्ञान के कारण अपनी इस शक्तिमत्ता से अनभिज्ञ रहता है। वह देह से मुक्त होते ही ऊपर की ओर गमन करता है अतः ऊर्ध्वगामी है। द्रव्य संग्रह में नेमिचन्द आचार्य ने जीव की यही विशेषताएँ बताई हैं। आचार्य पूज्यपाद ने भी सिद्ध भक्ति में एक श्लोक में आत्मा की इन सब विशेषताओं का उल्लेख किया है जिसका रूपान्तर पंडित जुगल किशोर मुख्तार के शब्दों में इस प्रकार है (146) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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